________________
सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ]
बृहद्रव्यसंग्रहः
वलम्बनः कर्मादानहेतुभूत आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योग इत्युच्यते । अभ्यन्तरे परमोपशममूर्तिकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वभावपरमात्मस्वरूपक्षोभकारकाः बर्हिविषये तु परेषां सम्बन्धित्वेन क्रूरत्वाद्यावेशरूपाः क्रोधादयश्चेत्युक्तलक्षणा: पञ्चास्त्रवाः "अथ" अथो "विष्णेया" विज्ञेया ज्ञातव्याः । कतिभेदास्ते "पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु" पञ्चपञ्चपञ्चदशत्रिचतुर्भेवाः क्रमशो भवन्ति पुनः । तथाहि " एयंत बुद्धिदरसी विवरीओ बह्मतावसो विणओ | इंदो विय संसइदो मक्कडिओ चेव अण्णाणी । १।" इति गाथाकथितलक्षणं पञ्चविधं मिथ्यात्वम् । हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाकाङ्क्षारूपेणाविरतिरपि पञ्चविधा । अथवा मनःसहितपञ्चेन्द्रियप्रवृत्तिपृथिव्यादिषट्कार्याविराधनाभेदेन द्वादशविधा । "विकहा तह य कसाया इंदियणिद्दा य तह य पणयो य । चदु चतु पणमेगेगं हंति पमादा हु पण्णरसा । १।" इति गाथाकथितक्रमेण पञ्चदश प्रमादाः । मनोवचनकायव्यापारभेदेन त्रिविधो योगः, विस्तरेण पञ्चदशभेदो वा । क्रोधमानमायालोभभेदेन कषायाश्चत्वारः कषायनोकषायभेदेन पञ्चविंशतिविधा वा । एते सर्वे भेदाः कस्य सम्बन्धिनः "पुव्वस्स" पूर्वसूत्रोदितभावात्रवस्येत्यर्थः ॥ ३० ।।
अथ द्रव्यास्त्रवस्वरूपमुद्योतयतिः -
णाणावरणादीनं जोरगं जं पुग्गलं समासवदि ।
दव्वासवो स ओ अणेयभेओ जिंणक्खादो ॥ ३१ ॥ ज्ञानावरणादीनां योग्यं यत् पुद्गलं समास्रवति ।
द्रव्यास्रवः सः ज्ञेयः अनेकभेदः जिनाख्यातः ॥ ३१ ॥
Jain Education International
७१
1
क्रूरता आदिके आवेश रूप जो क्रोध आदि हैं उनको कषाय कहते हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षण के धारक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा कषाय ये पाँच भावास्रव हैं । ये "अथ" पूर्वकथनके अर्थात् २९ वीं गाथामें कहे हुए कथनके पश्चात् "विष्णेया" जानने चाहिये। अब इन पाँच भावास्रवोंके कितने भेद हैं सो कहते हैं - " पण पण पणदस तिय चटु कमसो भेदा दु" और उन मिथ्यात्व आदिके क्रमसे पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद हैं । वे इस प्रकार हैं "बौद्धमतवाले आदि एकान्तमिथ्यात्वी हैं १, यज्ञ करनेवाले ब्राह्मण आदि विपरीतमिथ्यात्व के धारक हैं २, तापस आदि विनयमिथ्यात्वी हैं ३, इन्द्राचार्य आदि संशयमिथ्यात्वी हैं ४, और मस्करी आदि- अज्ञानमिथ्यात्वी हैं ५ ।' हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहमें इच्छारूप अविरति भी पाँच प्रकारकी है, अथवा यही अविरति मन और पाँचों इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिरूप ६ भेद तथा छहकायके जीवोंकी विराधनारूप ६ भेद ऐसे दोनोंके मिलानेसे बारह प्रकारकी भी है । "चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और राग ऐसे पन्द्रह प्रमाद होते हैं ।। १ ।। ” इस गाथाकथित क्रमसे प्रमाद पन्द्रह हैं । मनोव्यापार, वचनव्यापार और काव्यव्यापार इन भेदोंसे योग तीन प्रकारका है, अथवा विस्तारसे १५ प्रकारका है । क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन भेदोंसे कषाय चार प्रकारके हैं, अथवा १६ कषाय और ९ नोकषाय इन भेदोंसे पच्चीस प्रकारके कषाय हैं । ये सब भेद किस आस्रवके सम्बन्धी हैं कि "पुव्वस्स" पूर्व गाथामें कहा हुआ जो भावास्रव है उसके भेद हैं । इस प्रकार गाथाका अर्थ है ।। ३०॥
अब द्रव्यासवके स्वरूपको प्रकट करते हैं
--
गाथाभावार्थ - ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोंके योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यासव जानना चाहिये । वह अनेक भेदोंसहित है, ऐसा श्रीजिनेन्द्र ने कहा है ||३१||
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org