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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ द्वितीय अधिकार
यदुक्तं त्वया । तन्न । येन परिणामेन किं भवति आस्रवति कर्म तत्परिणामस्य सामथ्यं दर्शितं न च द्रव्यास्त्रवव्याख्यानमिति भावार्थः ॥ २९ ॥
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अथ भावास्रवस्वरूपं विशेषेण कथयति ;
मिच्छत्ताविरदिपमादजोग कोधादओऽथ विष्णेया ।
पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ।। ३० ।। अथ विज्ञेयाः । पञ्च पञ्च पञ्चदश त्रयः चत्वारः क्रमशः भेदाः तु पूर्वस्य ॥ ३० ॥
मिथ्यात्वाविरतिप्रमादयोगक्रोधादयः
व्याख्या - "मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ" मिथ्यात्वाविरतिप्रमादयोगक्रोधादयः । अभ्यन्तरे वीतरागनिजात्मतत्त्वानुभूतिरुचिविषये विपरीताभिनिवेशजनकं, बहिविषये तु परकीयशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिसमस्तद्रव्येषु विपरीताभिनिवेशोत्पादकं च मिथ्यात्वं भण्यते । अभ्यन्तरे निजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्न परमसुखामृत रतिविलक्षणा बर्हिविषये पुनरव्रतरूपा चेत्यविरतिः । अभ्यन्तरे निष्प्रमादशुद्धात्मानुभूतिचलनरूपः बहिविषये तु मूलोत्तरगुणमलजनकश्चेति प्रमादः । निश्चयेन निष्क्रियस्यापि परमात्मनो व्यवहारेण वीर्यान्तरायक्षयोपशमोत्पन्नो मनोवचनकायवर्गणापरिणामसे क्या होता है कि कर्मका आस्रव होता है" यह जो कथन है उससे परिणामका सामर्थ्य दिखाया गया है, द्रव्यास्रवका व्याख्यान नहीं किया गया । यह भावार्थ है ||२९|| अब भावास्रव के स्वरूपका विशेष रीतिसे कथन करते हैं;
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गाथाभावार्थ- - अब प्रथम जो भावास्रव है उसके मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, योग और क्रोध आदि कषाय ऐसे पाँच भेद जानने चाहिये; और मिथ्यात्व आदिके क्रमसे पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद समझने चाहिये । अर्थात् मिथ्यात्वके पाँच भेद, अविरतिके पाँच भेद, प्रमादके पन्द्रह भेद, योगके तीन भेद और क्रोध आदि कषायोंके चार भेद जानने चाहिये ||३०||
व्याख्यार्थ - मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ" मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा क्रोध आदि वक्ष्यमाण लक्षण तथा संख्यायुक्त भाव आस्रवके भेद हैं । इनमें से अन्तरंग में जो वीतराग निज आत्मतत्त्वके अनुभव में रुचि है उसके विषय में विपरीत अभिनिवेश ( आग्रह ) का उत्पन्न करानेवाला तथा बाह्य विषय में परसंबन्धी शुद्ध आत्मतत्त्वसे आदि लेके संपूर्ण द्रव्यों में जो विपरीत अर्थात् उलटे आग्रहका उत्पन्न करानेवाला है, उसको मिथ्यात्व कहते हैं । तथा अभ्यन्तर में निज परमात्मा के स्वरूपकी भावनासे उत्पन्न जो परम सुखरूप अमृत है, उस परम सुखमें जो रति (प्रीति) है उससे विलक्षण तथा बाह्य विषय में व्रत आदिका धारण न करने रूप जो है सो अविरति है । तथा अभ्यन्तरमें प्रमादरहित जो शुद्ध आत्मा है उसके अनुभवसे चलन (डिगाने ) रूप और बाह्य विषयमें जो मूल गुण तथा उत्तर गुण हैं उनमें अतिचार उत्पन्न करनेवाला प्रमाद है । निश्चयसे क्रियारहित परमात्माके भी जो व्यवहारसे वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशम से उत्पन्न तथा मन, वचन तथा काय वर्गणाको अवलम्बन करनेवाला, कर्मोंके ग्रहण करने में कारणभूत आत्माके प्रदेशोंका परिस्पन्द ( संचलन ) है उसको योग कहते हैं । तथा अभ्यन्तर में परम उपशममूर्तिवाला तथा केवलज्ञान आदि अनंत गुणोंरूप स्वभावका धारक जो परमात्माका स्वरूप है उसमें क्षोभको उत्पन्न करनेवाले तथा बाह्य विषय में परके संबंधीपनेसे
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