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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ द्वित्तीय अधिकार
व्याख्या - " णाणावरणादीनं" सहजशुद्ध केवलज्ञानमभेदेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं ज्ञानशब्दवाच्यं परमात्मानं वा आवृणोतीति ज्ञानावरणं, तदादिर्येषां तानि ज्ञानावरणादीनि तेषां ज्ञानावरणादीनां "जोग्गं" योग्यं "जं पुग्गलं समासवदि" स्नेहाभ्यक्तशरीराणां धूलिरेणुसमागम इव निष्कषाय शुद्धात्मसंवित्तिच्युतजीवानां कर्मवर्गणारूपं यत्पुद्गलद्रव्यं समास्रवति "दव्वासओ स "ओ" द्रव्यास्त्रवः स विज्ञेयः । "अणेयभेओ" स च ज्ञानदर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायसंज्ञानामष्टमूलप्रकृतीनां भेदेन तथैव "पण णव दु अट्टवीसा चउ तियणवदी य दोण्णि पंचे। बावण्णहीण बियसयपयडिविणासेण होंति ते सिद्धा ॥ १ ॥” इति गाथाकथितक्रमेणाष्टचत्वारिंशदधिकशतसंख्याप्रमितोत्तरप्रकृतिभेदेन तथा चासंख्येयलोकप्रमितपृथिवीकायनामकर्माद्युत्तरोत्तर प्रकृतिरूपेणानेकभेद इति “जिणक्खादो" जिनख्यातो जिनप्रणीत इत्यर्थः ॥ ३१ ॥ एवमात्रवव्याख्यानगाथात्रयेण प्रथमस्थलं गतम् ।
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अतः परं सूत्रद्वयेन बन्धव्याख्यानं क्रियते । तत्रादौ गाथापूर्वार्धेन भावबन्धमुत्तरार्धेन तु द्रव्यबन्धस्वरूपमा वेदयति; -
झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो । कम्मादपसाणं अणोपवेसणं इदरो ॥ ३२ ॥
व्याख्यार्थ - - " णाणावरणादीनं" सहज शुद्ध केवलज्ञानको अथवा अभेदन की विवक्षा से केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंका आधारभूत 'ज्ञान' इस शब्द से कहने योग्य जो परमात्मा है उसको जो आवृत करे अर्थात् ढके सो ज्ञानावरण है । वह ज्ञानावरण है आदिमें जिनके ऐसे जो ज्ञानावरणादि हैं उनके "जोग्गं" योग्य "जं" जो "पुग्गलं" पुद्गल "समासवदि" आता है अर्थात् जैसे तैसे लिप्त (चुपड़े हुए) शरीरवाले जीवोंके धूलके कणोंका आगमन होता है उसी प्रकार कषायरहित शुद्ध आत्माके ज्ञानसे रहित जीवोंके जो कर्मवगणारूप पुद्गलद्रव्य आता है "दव्वासओ स णेओ" उसको द्रव्यास्रव जानना चाहिये । " अणेयभेओ" और वह अनेक प्रकारका है अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुः, नाम, गोत्र तथा अन्तराय नामक जो आठ मूल प्रकृतिके भेद हैं उनसे, अथवा "ज्ञानावरणीयके ५, दर्शनावरणीयके ९, वेदनोयके २, मोहनीय के २८, आयुके ४, नामके ९३, गोत्रके २, और अन्तरायके ५ इस प्रकार बावन कम दोसौ (१४८ ) प्रकृतियों का नाश होने से वे सिद्ध होते हैं ।" इस गाथामें कहे हुए क्रमसे एकसौ अड़तालीस संख्या प्रमाण जो उत्तरप्रकृतियाँ हैं उनके भेदोंसे तथा असंख्यात लोकप्रमाण जो पृथिवी काय नाम कर्म आदि उत्तरोत्तर प्रकृतिभेद हैं उनसे अनेक प्रकारका है । "जिणक्वादो" यह द्रव्यास्रवका सूत्र श्रीजिनेन्द्रदेवका कहा हुआ है । इस प्रकार गाथाका अर्थ है ||३१||
इस पूर्वोक्त प्रकार के आस्रवके व्याख्यानकी तीन गाथाओंसे प्रथम स्थल समाप्त हुआ । अब इसके आगे दो गाथासूत्रोंसे बन्ध पदार्थका व्याख्यान करते हैं । उसमें प्रथम गाथाके पूर्वार्ध मे भाववन्ध और उत्तराध से द्रव्यबन्धके स्वरूपका उपदेश करते हैं ।
गाथाभावार्थ - जिस चेतनभावसे कर्म बँधता है वह तो भावबन्ध है, और कर्म तथा आत्मा
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