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सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ]
बृहद्रव्यसंग्रहः
बध्यते कर्म्म येन तु चेतनभावेन भावबन्धः सः । कर्मात्मप्रदेशानां अन्योन्यप्रवेशनं इतरः ॥ ३२ ॥
व्याख्या -- " बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबन्धो सो" बध्यते कर्म येन चेतनभावेन स भावबन्धो भवति । समस्तकर्मबन्धविध्वंसनसमर्थाखण्डैकप्रत्यक्षप्रतिभासमयपरमचैतन्यविलासलक्षणज्ञानगुणस्य, अभेदनयेनानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतपरमात्मनो वा सम्बन्धिनी या तु निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाऽशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स भावबन्धो भण्यते । “कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो" कर्मात्मप्रदेशानामन्योन्यप्रवेशनमितरः । तेनैव भावबन्धनिमित्तेन कर्मप्रदेशानामात्मप्रदेशानां च क्षीरनीरवदन्योन्यं प्रवेशनं संश्लेषो द्रव्यबन्ध इति ॥ ३२ ॥
अथ तस्यैव बन्धस्य गाथापूर्वार्धन प्रकृतिबन्धादिभेदचतुष्टयं कथयति, उत्तरार्धेन तु प्रकृतिबन्धादीनां कारणं चेति ॥
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डिडिदिअणुभाग पदेस भेदादु चदुविधो बंधो ।
जोगा पयपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥ ३३ ॥
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेश भेदात् तु चतुविधो बन्धः ।
योगात् प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतः भवतः ॥ ३३ ॥ व्याख्या- - "पयडिट्ठि दिअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो" प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशभे
के प्रदेशोंका परस्पर प्रवेशन रूप अर्थात् कर्म और आत्माके प्रदेशोंका एकाकार होनेरूप दूसरा द्रव्यबन्ध है || ३२ ॥
व्याख्यार्थ - " बज्झदि कम्मं जेण द्र चेदणभावेण भावबंधो सो” जिस चेतनके भावसे कर्म वंधता है; वह भावबन्ध हैं; अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंके बन्धको नष्ट करने में समर्थ तथा अखण्ड ( पूर्ण ) एक प्रत्यक्ष ज्ञान स्वरूप जो परम चैतन्य विलास लक्षणका धारक ज्ञान गुण है, उससे अथवा अभेदनकी विवक्षासे अनन्तज्ञान आदि गुणोंका आधारभूत जो परमात्मा है उससे सम्बन्ध रखनेवाली जो निर्मल अनुभूति ( अनुभव ) है उससे विपक्षभूत ( विरोधी ) अथवा मिथ्यात्व, राग आदिमें परिणतिरूप अशुद्ध चेतनभावस्वरूप जो परिणाम है उससे जो कर्म बंधता है वह भावबन्ध कहलाता है । "कम्मादपदेसाणं अण्णोष्णपवेसणं इदरो" कर्म और आत्माके प्रदेशोंका परस्पर प्रवेशनरूप दूसरा है, अर्थात् उसी पूर्वोक्त भावबन्धके निमित्तसे कर्मके प्रदेशोंका और आत्माके प्रदेशोंका जो दूध तथा जलकी भांति एक दूसरेमें प्रवेश होना अर्थात् मिल जाना है, सो द्रव्यबन्ध है || ३२ ॥
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अब गाथाके पूर्वार्घसे उसी बन्धके प्रकृतिबन्ध आदि चार भेदोंको कहते हैं और उत्तरार्धसे उन प्रकृतिबन्ध आदिके कारणका कथन करते हैं ।
गाथाभावार्थ - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन भेदोंसे बन्ध चार प्रकारका है । इनमें योगोंसे प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध होते हैं और कषायोंसे स्थिति तथा अनुभाग बन्ध होते हैं ||३३|| व्याख्यार्थ - " पर्याडट्टिविअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो” प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इन भेदोंसे बन्ध चार प्रकारका है । सो ही विशेषतासे दिखलाते
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