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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार दाच्चतुविधो बन्धो भवति । तथाहि - ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः का प्रकृतिः ? देवतामुखवस्त्रमिव ज्ञानप्रच्छादनता । दर्शनावरणीयस्य का प्रकृतिः ? राजदर्शनप्रतिषेधक प्रतीहारवद्दर्शनप्रच्छादनता । सातासात वेदनीयस्य का प्रकृतिः ? मधुलिप्तखङ्गधारास्वादनवदल्प सुख बहुदुः खोत्पादकता । मोहनीयस्य का प्रकृति ? मद्यपानवद्धेयोपादेयविचारविकलता । आयुः कर्मणः का प्रकृति ? निगडवद्गत्यन्तरगमननिवारणता । नामकर्मणः का प्रकृति ? चित्रकारपुरुषवन्नानारूपकरणता । गोत्रकर्मणः का प्रकृतिः ? गुरुलघुभाजनका रककुम्भकारवदुच्चनीच गोत्रकरणता । अन्तरायकर्मणः का प्रकृतिः ? भाण्डागारिकवद्दानादिविघ्नकरणतेति । तथा चोक्तं - "पडपडिहारसिमज्जाहलिचित्त कुलालभंडयारीणं जह एदेसि भावा तहविह कम्मा मुणेयव्वा ॥ १ ॥” इति दृष्टान्ताष्टकेन प्रकृतिबन्धो ज्ञातव्यः | अजागोमहिष्यादिदुग्धानां प्रहरद्वयादिस्व कोयमधुररसावस्थानपर्यन्तं यथा स्थितिभण्यते तथा जीवप्रदेशेष्वपि यावत्कालं कर्मसंबन्धेन स्थितिस्तावत्कालं स्थितिबन्धो ज्ञातव्यः । यथा च तेषामेव दुग्धानां तारतम्येन रसगतशक्तिविशेषोऽनुभागो भण्यते तथा जीवप्रदेशस्थित कर्मस्कन्धानामपि सुखदुःखदानसमर्थशक्तिविशेषोऽनुभागबन्धो विज्ञेयः । सा च घातिकर्मसम्बन्धिनी शक्तिलतादार्वस्थिपाषाणभेदेन चतुर्धा । तथैवाशुभाघातिकर्मसंबन्धिनी निम्बकाञ्जीरविषहालाहलरूपेण । शुभाघातिकर्म संबन्धिनी पुनर्गुडखण्डशर्करामृतरूपेण चतुर्धा भवति । एकैकात्मप्रदेशे सिद्धा ७४ हैं- ज्ञानावरणी कर्मकी प्रकृति ( स्वभाव ) क्या है ? इस जिज्ञासामें उत्तर यह है कि जैसे देवताको मुखवस्त्र आवरण (पड़दा ) आच्छादित कर लेता है अर्थात् ढक लेता है उसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्म ज्ञानको ढक लेता है । दर्शनावरणीकी प्रकृति क्या है ? राजाके दर्शनकी रुकावट जैसे द्वारपाल करता है उसी प्रकार दर्शनावरणी दर्शनको नहीं होने देता है । सातावेदनी और असातावेदनी नामक दो भेदोंका धारक जो वेदनी कर्म है उसकी क्या प्रकृति है ? मधु ( सहत ) से लिपटी हुई तलवारकी धार चाटने में जैसे अल्प सुख और अधिक दुःख उत्पन्न होता है, वैसे ही वेदनी कर्म भी अल्पसुख और अधिक दुःखको देनेवाला है । मद्य ( मदिरा ) पानके समान हेय ( त्यागने योग्य ), उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) पदार्थ के ज्ञानकी रहितता यह मोहनी कर्मकी प्रकृति है । Math समान दूसरी गतिमें जानेको रोकना यह आयुःकर्मकी प्रकृति है । चित्रकार ( चितेरा ) पुरुषके तुल्य नानाप्रकारके रूपका करना यह नामकर्मकी प्रकृति है । छोटे बड़े भाजन (घट आदि ) को करनेवाले कुंभारकी भांति उच्च तथा नीच गोत्रको करना यह गोत्र कर्मकी प्रकृति है । भंडारी के समान दान आदिमें विघ्न करना यह अन्तराय कर्मकी प्रकृति है । सो ही कहा है – “पट ( वस्त्र ), प्रतीहार ( द्वारपाल ), तलवार, मद्य, बेड़ी, चितेरा, कुम्भकार और भण्डारी इन आठोंका जैसा स्वभाव है वैसा ही क्रमसे ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोंका स्वभाव है ।। १ ।।" इस प्रकार गाथामें कहे हुए आठ दृष्टान्तोंके अनुसार प्रकृतिबन्ध जानना चाहिये || तात्पर्य यह कि कर्मपुद्गलोंका ज्ञानावरण आदि शक्ति सहित हो जाना ही प्रकृतिबन्ध है । तथा वकरी, गौ, महिषी (भैंस) आदिके दुग्धों में जैसे दो प्रहर आदि अपने मधुर रस में रहने की स्थिति कही जाती है अर्थात् बकरीका दूध दो प्रहरतक अपने मधुर रसमें स्थित रहता है इत्यादि स्थितिका कथन है उसी प्रकार जीवके प्रदेशों में जितने काल पर्यन्त कर्मसम्बन्धसे स्थिति है उतने कालको स्थितिबन्ध जानना चाहिये । और जैसे उन पूर्वोक्त बकरी आदिके दूधमें तारतम्यसे ( न्यूनाधिकता से ) मधुर - रस में प्राप्त शक्तिविशेषरूप अनुभाग कहा जाता है उसी प्रकार जीवके प्रदेशों में www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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