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________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः नन्तैकभागसंख्या अभव्यानन्तगुणप्रमिता अनन्तानन्तपरमाणवः प्रतिक्षणबन्धमायान्तीति प्रदेशबन्धः ॥ इदानीं बन्धकारणं कथ्यते । "जोगा पथडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ।" योगात्प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतो भवत इति । तथाहि - निश्चयेन निष्क्रियाणामपि शुद्धात्मप्रदेशानां व्यवहारेण परिस्पन्दनहेतुर्योगः, तस्मात्प्रकृतिप्रदेशबन्धद्वयं भवति । निर्दोषपरमात्मभावनाप्रतिबन्धकक्रोधादिकषायोदयात् स्थित्यनुभागबन्धद्वयं भवतीति । आस्रवे बन्धे च मिथ्यात्वाविरत्यादिकारणानि समानानि को विशेष इति चेत्, नैवं - प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमन मास्रव:, आगमनानन्तरं द्वितीयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं बन्ध इति भेदः । यत एव योगकषायाद्बन्धचतुष्टयं भवति तत एव बन्धविनाशार्थं योगकषायत्यागेन निजशुद्धात्मनि भावना कर्त्तव्येति तात्पर्यम् ॥ ३३ ॥ एवं बन्धव्याख्यानेन सूत्रद्वयेन द्वितीयं स्थलं गतम् ॥ अत ऊर्ध्वं गाथाद्वयेन संवरपदार्थः कथ्यते । तत्र प्रथमगाथायां भावसंवरद्रव्यसंवरस्वरूपं निरूपयति ; स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं उनके जो सुख तथा दुःख देने में समर्थ शक्ति विशेष है उसको अनुभागः बन्ध जानना चाहिये । और वह घाति कर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली शक्ति लता (बेल), काष्ठ, हाड़, और पाषाण भेदसे चार प्रकारकी है, इसी प्रकार अशुभ अघातिया कर्मों सम्बन्धिनी शक्ति निम्ब, कांजीर (काली जीरी), विष तथा हालाहल रूपसे चार प्रकारकी है, और शुभ अघातिया कर्मों सम्बन्धिनी शक्ति गुड़, खांड, मिश्री तथा अमृत इन भेदोंसे चार तरह की है । एक एक आत्माके प्रदेशमें सिद्धोंसे अनन्तैकभाग (अनन्त में से एक भाग) संख्याके धारक और अभव्यराशिसे अनन्तगुणें परिमाणके धारक ऐसे अनन्तानन्त परमाणु प्रत्येक क्षण में बन्धको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार प्रदेशबन्ध - स्वरूप है । अब बन्धके कारणको कहते हैं- "जोगा पर्याडपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति" योगसे प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध होते हैं और स्थिति तथा अनुभाग ये दो बन्ध कषायों से होते हैं । इसका स्पष्टीकरण यह है कि निश्चयनयसे जो क्रियारहित भी शुद्ध आत्माके प्रदेश हैं उनका व्यवहारसे जो परिस्पंदन ( चलायमान करनेका ) कारण है उसको योग कहते हैं । उस योगसे प्रकृति तथा प्रदेश नामक दो बन्ध होते हैं । और दोषरहित जो परमात्मा है उसकी भावना ( ध्यान ) के प्रतिबन्धक ( रोकनेवाले ) जो क्रोध आदि कषाय हैं उनके उदयसे स्थिति और अनुभाग में दो बन्त्र होते है । कदाचित् - आस्रव और बंधके होनेम मिथ्यात्व अविरति, आदि कारण समान हैं । इसलिये आस्रव और बंधमें क्या भेद है ? ऐसी शंका करो तो वह ठीक नहीं है । क्योंकि प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धोंका आगमन है, वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धोंके आगमन के पीछे द्वितीय, तृतीय आदि क्षणोंमें जो उन कर्मस्कन्धोंका जीवके प्रदेशों में स्थित होना है सो बंध है । यह भेद आस्रव और बंधमें है । जिस कारणसे कि योग और कषायोंसे प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग नामक चार बंध होते हैं उसी कारण से बंधका नाश करनेके अर्थ योग तथा कषायका त्याग करके अपने शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिये । यह तात्पर्य है ॥ ३३ ॥ ७५ ऐसे बंधके व्याख्यान रूप जो दो गाथासूत्र हैं, उनके द्वारा द्वितीय अध्याय में द्वितीय स्थल समाप्त हुआ । अब इसके आगे दो गाथाओंसे संवर पदार्थका कथन करते हैं । उनमें प्रथम गाथामें भावसंवर और द्रव्यसंवरके स्वरूपका निरूपण करते हैं; - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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