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परिशिष्ट २
जीवाजीवासवबंध संवरो णिज्जरा तहा मोक्खो ।
तच्चाणि सत्त एदे सपुण्ण-पावा पयत्थाय ॥ ३ ॥
जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं; ये सात तत्त्व पुण्य और पाप सहित नौ पदार्थ हैं ।
जीवो होइ अमुत्तो सदेहमित्तो भोत्ता सो पुण दुविहो सिद्धो
to अमूर्ति, स्वदेह-प्रमाण, सचेतन, कर्त्ता और संसारी; संसारी जीव अनेक प्रकारके हैं ।
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं
सचेयणा संसारिओ
कत्ता । णाणा ॥ ४ ॥
और भोक्ता हैं । जीवके दो भेद हैं- सिद्ध
जाण
अलंगग्गहणं
जीवको रसरहित, अरूपी, गंधरहित, अव्यक्त, चेतनागुणवाला, शब्दरहित, लिङ्गद्वारा अग्राह्य, अनिर्दिष्ट संस्थानवाला जानो ।
चेयणागुण मसदं । जीवमणिदिट्ठ- संद्वाणं ॥ ५ ॥
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वण्ण-रस-गंध-फासा विज्जते जस्स जिणवरुद्दिट्ठा ।
मुत्तो पुग्गलकाओ पुढवी पहुदी हु सो सोढा ॥ ६ ॥
जिसे वर्ण, रस, गंध, और स्पर्श विद्यमान है उस मूर्तिक पुद्गलकायको पृथ्वी आदि छः प्रकारका श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है ।
पुढवी जलं च छाया चरिदियविसय कम्म परमाणू । छव्विहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणिदेहि ॥ ७ ॥
पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियोंके विषय, कर्मवर्गणा और परमाणु - श्री जिनेन्द्रदेवने पुद्गलद्रव्यके ये छ: प्रकार कहे हैं ।
गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी ।
तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो ई ॥ ८ ॥
गति में परिणत पुद्गल और जीवको धर्मद्रव्य गमनमें सहकारी है जैसे मछलीको गमनमें जल सहकारी है । गमन नहीं करते हुए पुद्गल और जीवको धर्मंद्रव्य गमन नहीं कराता है । ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव
ठाण-सहयारी ।
अवगासदाणजोग्गं
स्थितिसहित पुद्गल और जीवको उनकी स्थिति में अधर्मद्रव्य सहकारी है जैसे पथिकों की स्थिति में छाया सहकारी है । गमन करते हुए पुद्गल और जीवको वह अधर्मद्रव्य नहीं ठहराता है ।
सो धरई ॥ ९ ॥
जीवादीणं वियाण
आयासं ।
जेहं
लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ १० ॥
जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश देनेवाला है उसे आकाशद्रव्य जानो । वह लोकाकाश और अलोकाकाश इन भेदोंसे दो प्रकारका है ।
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