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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार महद्धिकदेवेष्वेव । “शेषेषु देवतिर्यक्षु षट्स्वधः श्वभ्रभूमिषु। द्वौ वेदकोपशमको स्यातां पर्याप्तदेहिनाम् । १।" इति निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गावयविनः प्रथमावयवभूतस्य सम्यक्त्वस्य व्याख्यानेन गाथा गता ॥४१॥ अथ रत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गद्वितीयावयवरूपस्य सम्यग्ज्ञानस्य स्वरूपं प्रतिपादयति;
संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स । गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेय भेयं तु ॥४२ ॥ संशयविमोहविभ्रमविजितं आत्मपरस्वरूपस्य ।
ग्रहणं सम्यग्ज्ञानं साकारं अनेकभेदं च ॥ ४२ ॥ व्याख्या- "संसयविमोहविन्भमविवज्जियं" संशयः शुद्धात्मतत्त्वादिप्रतिपादकमागमज्ञानं कि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतं भविष्यति परसमयप्रणीतं वेति ? संशयः। तत्र दष्टान्तः-स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । विमोहः परस्परसापेक्षनयद्वयेन द्रव्यगुणपर्यायादिपरिज्ञानाभावो विमोहः। तत्र दृष्टान्तः-गच्छत्तृणस्पर्शवद्दिग्मोहवद्वा। विभ्रमोऽनेकान्तात्मकवस्तुनो नित्यक्षणिकैकान्तादिरूपेण
और तिर्यचोंमें तथा रत्नप्रभानामक प्रथम नरक पृथ्वीमें जीवोंके उपशम, वेदक और क्षायिक ये तीनों सम्यक्त्व होते हैं ॥ १॥" और जिसने आयुको बांध लिया है अथवा प्राप्त कर लिया है ऐसे कर्मभूमिके मनुष्यमें तीनों ही सम्यक्त्व होते हैं। परन्तु विशेष यह है कि अपर्याप्त-अवस्थामें औपशमिक सम्यक्त्व महद्धिक देवोंमें ही होता है और "जो शेष ( बचे हुए ) देव-तिर्यञ्च हैं उनमें छह नीचेकी नरकभूमियोंमें पर्याप्तजीवोंके वेदक और उपशम ये दो सम्यक्त्व होते हैं ॥ १॥" इस प्रकार निश्चय तथा व्यवहाररूप जो रत्नत्रय स्वरूप अवयवी है उसका प्रथम अवयवभूत जो सम्यग्दर्शन है उसके व्याख्यानसे गाथा समाप्त हुई ॥ ४१ ॥
___ अब रत्नत्रय रूप जो मोक्षमार्ग है उसके द्वितीय अवयव रूप सम्यग् ज्ञानके स्वरूपका कथन करते हैं
गाथाभावार्थ-आत्मस्वरूप और परपदार्थके स्वरूपका जो संशय, विमोह (अनध्यवसाय) . और विभ्रम (विपर्यय ) रूप कुज्ञानसे रहित जानना है वह सम्यग् ज्ञान कहलाता है यह आकार ( विकल्प ) सहित है और अनेक भेदोंका धारक हैं ॥ ४२ ॥
व्याख्यार्थ- "संसयविमोहविन्भमनिवज्जियं" शुद्ध आत्मतत्त्व आदिका प्रतिपादन करनेवाला जो शास्त्रका ज्ञान है वह क्या वीतरागसर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है ? अथवा अन्यमतियों द्वारा निरूपण किया हुआ सत्य है ? इसप्रकार जो विचार करना हैं वह संशय है । इसमें दृष्टान्त ऐसा कि 'क्या यह अंधकारमें स्थित पदार्थ स्थाणु ( वृक्षका दूँठ ) है अथवा कोई मनुष्य खड़ा हा है' इस प्रकार विचारना संशय है। गमन करते हुए पुरुषके जैसे चरणोंमें तृण ( घास ) आदिका स्पर्श होता है और उसको मालम नहीं होता कि क्या लगा वा जैसे दिशाका भूल जाना होता है उसीप्रकार एक दूसरेकी आपसमें अपेक्षाके धारक जो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकस्वरूप दो नय हैं उनके अनुसार जो द्रव्य, गुण तथा पर्याय आदिका नहीं जानना है उसको विमोह कहते हैं । जैसे किरीको सीपमें चाँदीका और चाँदीमें सीपका ज्ञान हो जाय; इसीप्रकार जो अनेकान्तरूप वस्तु है उसको यह नित्य ही है, यह अनित्य ही है ऐसे जो एकान्तरूप जानना है वह विभ्रम
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