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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार संज्ञविपक्षत्रयभेदेन सह षड्विधा ज्ञातव्या। १२ । संज्ञित्वासंज्ञित्वविसदृशपरमात्मस्वरूपादिन्ना संज्यसंज्ञिभेदेन द्विधा संज्ञिमार्गणा । १३ । आहारकानाहारकजीवभेदेनाहारकमार्गणापि द्विधा । १४ । इति चतुर्दशमार्गणास्वरूपं ज्ञातव्यम् । एवं "पुढविजलतेयवाऊ" इत्यादिगाथाद्वयेन, तृतीयगाथापादत्रयेण च "गुणजीवापज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य। उवओगो विय कमसो वीसं तु परूवणा भणिया।१।" इति गाथाप्रभूतिकथितस्वरूपं धवलजयधवलमहाधवलप्रबन्धाभिधानसिद्धान्तत्रयबीजपदं सूचितम् । “सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इति शुद्धात्मतत्त्वप्रकाशकं तृतीयगाथाचतुर्थपादेन पञ्चास्तिकायप्रवचनसारसमयसाराभिधानप्राभूतत्रयस्यापि बीजपदं सूचितमिति । अत्र गुणस्थानमार्गणादिमध्ये केवलज्ञानदर्शनद्वयं क्षायिकसम्यक्त्वमनाहारकशुद्धात्मस्वरूपं च साक्षादुपादेयं, यत्पुनश्च शुद्धात्मसम्यकश्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणं कारणसमयसारस्वरूपं तत्तस्यैवोपादेयभतस्य विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन साधकत्वात्पारम्पर्येणोपादेयं, शेषं तु हेयमिति । यच्चाध्यात्मग्रन्थस्य बीजपदभूतं शुद्धात्मस्वरूपमुक्तं तत्पुनरुपादेयमेव । अनेन प्रकारेण जीवाधिकारमध्ये शुद्धाशुद्धजीवकथनमुख्यत्वेन सप्तमस्थले गाथात्रयं गतम् ॥ १३ ॥ अथेदानी गाथापूर्वार्द्धन सिद्धस्वरूपमुत्तरार्द्धन पुनरूर्ध्वगतिस्वभावं च कथयति; णिक्कम्मा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजत्ता ॥ १४ ॥ शमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक सम्यक्त्वके भेदसे सम्यक्त्वमार्गणा तीन प्रकारकी है। तथा मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीनों विपक्ष भेदोसहित छः प्रकारकी भी सम्यक्त्वमार्गणा जाननी चाहिये । १२ । संज्ञित्व तथा असंज्ञित्वसे विलक्षण जो परमात्माका स्वरूप है उससे भिन्न संज्ञी तथा असंज्ञी भेदसे दो प्रकारकी संज्ञिमार्गणा है । १३ । और आहारक तथा अनाहारक जीवके भेदसे आहारमार्गणा भी दो प्रकारको समझनी चाहिये । १४ । ऐसे चौदह मार्गणाओंका स्वरूप जानना योग्य है। इस रीतिसे "पुढविजलतेयवाऊ' इत्यादि दो गाथाओंसे और तीसरी गाथा जो "णिकम्मा अट्टगणा" इत्यादि है उसके तीन पादोंसे "गुण जीवा पज्जत्ती पाणासण्णायमग्गणाउय । उवओगो विय कमसो बीसं तु परूवणा भणिया" इत्यादि गाथामें कहा हुआ स्वरूप धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन सिद्धान्त हैं उनके बीज पदकी सूचना ग्रन्थकारने को और 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इस तृतीय गाथाके चौथे पादद्वारा शुद्ध आत्मतत्त्वको प्रकाश करनेवाले जो पंचास्तिकाय, प्रवचनसार तथा समयसार नामक तीन प्राभूत ( पाहुड़ ) हैं उनका भी बीजपद सूचित किया। इन गुणस्थान और मार्गणाओंके मध्यमें केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों तथा क्षायिक सम्यक्त्व और अनाहारक शुद्ध आत्माका स्वरूप ये तो साक्षात् उपादेय हैं और जो शुद्ध आत्माका सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण करनेरूप लक्षणका धारक कारण समयसार है वह उसी पूर्वोक्त उपादेय भूतका विवक्षित एकदेश शुद्धनयसे साधक है इसलिये परम्परासे उपादेय है, इनके विना सब त्याज्य हैं; और जो अध्यात्मग्रन्थका बीज पदभूत शुद्ध आत्माका स्वरूप है वह तो उपादेय ही हैं। इस प्रकारसे जीवाधिकारके मध्यमें शुद्ध तथा अशुद्ध जीवके कथनकी मुख्यतारूप जो सप्तम स्थल है उसमें तीन गाथा समाप्त हुई ॥१३।। __ अब इसके पश्चात् गाथाके पूर्वार्द्धसे तो सिद्धोंके स्वरूपका और उत्तरार्द्धसे उनका जो ऊर्ध्वगमन स्वभाव है उसका कथन करते हैं; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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