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द्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ]
बृहद्रव्य संग्रहः
स्थानरहिता जीवा इत्युक्तं पूर्वम्, इदानीं पुनर्भव्याभव्यरूपेण मार्गणामध्येऽपि पारिणामिकभावो भत इति पूर्वापरविरोधः । अत्र परिहारमाह-पूर्वं शुद्धपारिणामिकभावापेक्षया गुणस्थानमार्गणानिषेधः कृतः, इदानीं पुनर्भव्या भव्यत्वद्वयमशुद्ध पारिणामिकभावरूपं मार्गणामध्येऽपि घटते । ननु - शुद्धाशुद्धभेदेन पारिणामिकभावो द्विविधो नास्ति किन्तु शुद्ध एव नैव - यद्यपि सामान्यरूपेणोत्सर्गव्याख्यानेन शुद्ध पारिणामिकभावः कथ्यते तथाप्यपवादव्याख्यानेनाशुद्धपारिणामिकभावोऽप्यस्ति । तथाहि - "जीवभव्याभव्यत्वानि च" इति तत्त्वार्थसूत्रे त्रिधा पारिणामिकभावो भणितः, तत्र - शुद्धचैतन्यरूपं जीवत्वमविनश्वरत्वेन शुद्धद्रव्याश्रितत्वाच्छुद्धद्रव्यार्थिकसंज्ञः शुद्धपारिणामिकभावो भण्यते, यत्पुनः कर्मजनितदशप्राणरूपं जीवत्वं भव्यत्वम्, अभव्यत्वं चेति त्रयं तद्विनश्वरत्वेन पर्यायाश्रितत्वात्पर्यायार्थिक संज्ञस्त्वशुद्धपारिणामिकभाव उच्यते । अशुद्धत्वं कथमिति चेत्-यद्यप्येतदशुद्धपारिणामिकत्रयं व्यवहारेण संसारिजीवेऽस्ति तथापि "सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इति वचनाच्छु, निश्चयेन नास्ति त्रयं मुक्तजीवे पुनः सर्वथैव नास्ति इति हेतोरशुद्धत्वं भण्यते । तत्र शुद्धाशुद्धपारिणामिकमध्ये शुद्धपारिणामिकभावो ध्यानकाले ध्येयरूपो भवति ध्यानरूपो न भवति, कस्मात् ध्यानपर्यायस्य विनश्वरत्वात् शुद्धपारिणामिकस्तु द्रव्यरूपत्वादविनश्वरः, इति भावार्थ: । औपशमिक्षायोपशमिक क्षायिकसम्यक्त्वभेदेन त्रिधा सम्यक्त्वमार्गणा मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्र -
पारिणामिक परमभावरूप जो शुद्ध निश्चयनय है उसकी अपेक्षासे जीव गुणस्थान तथा मार्गणास्थानोंसे रहित हैं" यह पूर्व प्रकरण में आपने कहा है और अब यहाँ भव्य अभव्य रूपसे मार्गणा में भी आपने पारिणामिक भाव कहा सो यह पूर्वापरविरोध है । अब इस शंकाका परिहार ( खंडन ) कहते हैं कि पूर्व प्रसंग में तो शुद्ध पारिणामिक भावकी अपेक्षासे गुणस्थान और मार्गणास्थानका निषेध किया है और यहाँ अशुद्ध पारिणामिक भाव रूपसे भव्य तथा अभव्य ये दोनों मार्गणा में भी कहे हैं सो नयभेद से यह कथन घटता ( संगत ) ही है । अब कदाचित् यह कहो कि "शुद्ध अशुद्ध भेदसे पारिणामिक भाव दो प्रकारका नहीं है किन्तु पारिणामिक भाव शुद्ध ही है” सो योग्य नहीं; क्योंकि, यद्यपि सामान्यरूप उत्सर्गव्याख्यान से पारिणामिक भाव शुद्ध है ऐसा कहा जाता है तथापि अपवाद व्याख्यानसे अशुद्ध पारिणामिक भाव भी है। इसी हेतुसे "जीवभव्याभव्यत्वानि च " ( अ. २ सूत्र ७ ) इस तत्त्वार्थसूत्र में जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व इन भेदोंसे पारिणामिक भाव
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तीन प्रकारका कहा है। उनमें शुद्ध चैतन्यरूप जो जीवत्व है वह अविनाशी होनेसे शुद्ध द्रव्यके आश्रित है इस कारण से शुद्ध द्रव्यार्थिकनामा शुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है । और जो कर्मसे उत्पन्न दश प्रकारके प्राणों स्वरूप जीवत्व है वह जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व भेदसे तीन प्रकारका है और ये तीनों विनाशशील होनेसे पर्यायके आश्रित है इसलिये पर्यायाकि संज्ञक अशुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है । "इसकी अशुद्धता किस प्रकारसे कहते हो" ऐसा कहो तो उत्तर यह है कि यद्यपि ये तीनों अशुद्ध पारिणामिक व्यवहारनयसे संसारी जीव में हैं तथापि "सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इस वचनसे ये तीनों भाव शुद्ध निश्चयन की अपेक्षा नहीं हैं और मुक्त जीव में तो सर्वथा ही नहीं हैं, इसी कारण उनकी अशुद्धता कही जाती है । उन शुद्ध तथा अशुद्ध पारिणामिक भावोंमेंसे जो शुद्ध पारिणामिक भाव है वह ध्यानके समय में ध्येय ( ध्यान करनेके योग्य ) रूप होता है और ध्यानरूप नहीं होता। क्योंकि, ध्यान पर्याय विनाशशील है और शुद्धपारिणामिक द्रव्यरूप है इस कारण अविनाशी है यह भावार्थ है । औप
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