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________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः निष्कर्माणः अष्टगुणाः किञ्चिदूनाः चरमदेहतः सिद्धाः । लोकानस्थिताः नित्याः उत्पादव्ययाभ्यां संयुक्ताः ।। १४ ।। व्याख्या-सिद्धाः सिद्धा भवन्तीति क्रियाध्याहारः । कि विशिष्टाः “णिक्कमा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो" निष्कर्माणोऽष्टगुणाः किञ्चिदूनाश्चरमदेहतः सकाशादिति सूत्रपू र्वार्द्धन सिद्धस्वरूपमुक्तम् । ऊर्ध्वगमनं कथ्यते "लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता" ते च सिद्धा लोकाग्रस्थिता नित्या उत्पादव्ययाभ्यां संयुक्ताः। अतो विस्तरः । कर्मारिविध्वंसकस्वशुद्धात्मसंवित्तिबलेन ज्ञानावरणादिमूलोत्तरगतसमस्तकर्मप्रकृतिविनाशकत्वादष्टकर्मरहिताः "सम्मत्तणाणदंसणवीरियसुहुमं तहेव अवगहणं। अगुरुलहुअव्वबाहं अट्टगुणा हुंति सिद्धाणं । १।" इति गाथाकथितक्रमेण तेषामष्टकर्मरहितानामष्टगुणाः कथ्यन्ते । तथाहि केवलज्ञानादिगुणास्पदनिजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं यत्पूर्व तपश्चरणावस्थायां भावितं तस्य फलभूतं समस्तजीवादितत्त्वविषये विपरीताभिनिवेशरहितपरिणतिरूपं परमक्षायिकसम्यक्त्वं भण्यते । पूर्व छद्मस्थावस्थायां भावितस्य निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानस्य फलभूतं युगपल्लोकालोकसमस्तवस्तुगतविशेषपरिच्छेदकं केवलज्ञानम् । निर्विकल्पस्वशुद्धात्मसत्तावलोकनरूपं यत्पूर्व दर्शनं भावितं तस्यैव फलभूतं युगपल्लोकालोकसमस्तवस्तुगतसामान्यग्राहक केवलदर्शनम् । कस्मिश्चित्स्वरूप गाथाभावार्थ-जो जीव ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठगुणोंके धारक हैं तथा अन्तिम शरीरसे कुछ कम हैं वे सिद्ध हैं और ऊर्ध्वगमन स्वभावसे लोकके अग्रभागमें स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद और व्यय इन दोनोंसे युक्त है ।। १४ ॥ व्याख्यार्थ-"सिद्धा' सिद्ध होते हैं इस रीतिसे यहाँ "भवन्ति" इस क्रियाका अध्याहार करना चाहिये । किन विशेषणोंसे विशिष्ट सिद्ध होते हैं "णिकम्मा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो" कर्मोंसे रहित आठगुणोंसे सहित तथा अन्तिम शरीरसे किचित् ऊन ( कुछ छोटे ) ऐसे सिद्ध होते हैं। इस प्रकार सूत्रके पूर्वार्द्धसे सिद्धोंका स्वरूप कहा। अब उनका ऊर्ध्वगमन स्वभाव कहते हैं। "लोयगठिदा णिच्चा उप्पादवएहि संजुत्ता" और वे सिद्धलोकके अग्रभागमें स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद और व्ययसे संयुक्त हैं। अब यहाँ विस्तारपूर्वक इस गाथाकी व्याख्या करते है-कर्मरूपी शत्रुओंके विध्वंस करने में समर्थ अपने शुद्ध आत्माके बलसे ज्ञानावरण आदि समस्त मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियोंके विनाशक होनेसे अष्टविध कर्मोंसे रहित सिद्ध होते हैं । तथा “सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध ये आठ गुण सिद्धोंके होते हैं,'' इस गाथोक्त क्रमसे उन अष्टकर्मरहित सिद्धोंके आठ गुण कहे जाते हैं। अब उन गुणोंको विस्तारसे दर्शाते हैं-केवलज्ञान आदि गुणोंका स्थानरूप जो निज शुद्ध आत्मा है वही ग्राह्य है, इस प्रकारकी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व जो कि पहले तपश्चरण करनेकी अवस्थामें उत्पादित किया था उसका फलभूत, समस्त जीव आदि तत्त्वोंके विषयमें विपरीत अभिनिवेश ( जो पदार्थ जिसरूप है उसके विरुद्ध आग्रह ) से शून्य परिणामरूप परम क्षायिक सम्यक्त्व नामा प्रथम गुण सिद्धोंके कहा जाता है। पूर्व कालमें छद्मस्थ अवस्थामें भावनागोचर किये हुए विकाररहित स्वानुभवरूप ज्ञानका फलभूत एक ही समयमें लोक तथा अलोकके सम्पूर्ण पदार्थोंमें प्राप्त हुए विशेषोंको जाननेवाला दूसरा केवलज्ञाननामा गुण है । सम्पूर्ण विकल्पोंसे शून्य निजशुद्ध आत्माकी सत्ताका अवलोकन ( दर्शन ) रूप जो पहले दर्शन भावित किया था उसी दर्शनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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