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________________ ३४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार चलनकारणे जाते सति घोरपरीषहोपसर्गादौ निजनिरञ्जन परमात्मध्याने पूर्व धैर्यमवलम्बितं तस्यैव फलभूतमनन्तपदार्थपरिच्छित्तिविषये खेदरहितत्वमनन्तवीर्यम् । सूक्ष्मातीन्द्रियकेवलज्ञानविषयत्वात्सिद्ध स्वरूपस्य सूक्ष्मत्वं भण्यते । एकदीपप्रकाशे नानादीपप्रकाशवदेकसिद्धक्षेत्रे सङ्करव्यतिकर दोषपरिहारेणानन्त सिद्धावकाशदान सामर्थ्यमवगाहनगुणो भण्यते । यदि सर्वथा गुरुत्वं भवति तदा लोहपिण्डवदधःपतनं, यदि च सर्वथा लघुत्वं भवति तदा वाताहता कंतूलवत्सर्वदैव भ्रमणमेव स्यान्न च तथा तस्मादगुरुलघुत्वगुणोऽभिधीयते । सहजशुद्धस्वरूपानुभवसमुत्पन्न रागादिविभावरहितसुखामृतस्य यदेकदेशसंवेदनं कृतं पूर्वं तस्यैव फलभूतमव्याबाधमनन्तसुखं भण्यते । इति मध्यम रुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादिगुणाष्टकं भणितम् । मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुर्नावशेष - भेदनयेन निर्गतित्वं निरिन्द्रियत्वं, निष्कायत्वं, निर्योगत्वं, निर्वेदत्वं निष्कषायत्वं, निर्नामत्वं, निर्गोत्रत्वं, निरायुषत्वमित्यादिविशेषगु णास्तथैवास्ति त्ववस्तुत्वप्रमेयत्वादिसामान्यगुणाः स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्याः । संक्षेपरुचिशिष्यं प्रति पुनववक्षिताभेदन येनानन्तज्ञानादिचतुष्टयम्, अनन्तज्ञानदर्शन सुखत्रयं, केवलज्ञानदर्शनद्वयं, साक्षादभेदनयेन शुद्धचैतन्यमेवैको गुण इति । पुनरपि कथंभूताः सिद्धाः चरमशरीरात् किञ्चिदूना भवन्ति तत् किञ्चिदूनत्वं शरीरोपाङ्गजनितनासिका ( फलभूत, एक काल में ही लोक अलोकके सम्पूर्ण पदार्थों में प्राप्त हुए सामान्यको ग्रहण करानेवाला केवलदर्शन नामा तृतीय गुण है । अतिघोर परीषह तथा उपसर्ग आदिके आनेके समय में जो पहले अपने निरंजन परमात्माके ध्यानमें धैर्यका अवलम्बन किया उसीका फलभूत अनन्त पदार्थोंके ज्ञानमें खेदके अभावरूप लक्षणका धारक चतुर्थ अनन्तवीर्यनामक गुण है । सूक्ष्म अतीन्द्रिय केवलज्ञानका विषय होनेसे सिद्धोंके स्वरूपको सूक्ष्म कहते हैं । यह सूक्ष्मत्व पंचम गुण है । एक दीपके प्रकाशमें जैसे अनेक दीपों के प्रकाशका समावेश हो जाता है उसी प्रकार एक सिद्धके क्षेत्रमें संकर तथा व्यतिकर दोष परिहारपूर्वक जो अनन्त सिद्धोंको अवकाश देनेका सामर्थ्यं है वही छठा अवगाहन गुण कहा जाता है। यदि सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु ( भारी ) हो तो लोहपिंडके समान उसका अधःपतन ( नीचे गिरना ) ही होता रहे और यदि सर्वथा लघु ताडित आक वृक्षकी रुई के समान उसका निरन्तर भ्रमण ही होता रहे, नहीं है इसलिये सातवाँ अगुरुलघुगुण कहा जाता है । स्वभावसे उत्पन्न और शुद्ध जो आत्मस्वरूप है उससे उत्पन्न तथा राग आदि विभावोंसे रहित ऐसे सुखरूपी अमृतका जो एकदेश अनुभव पहले किया उसीका फलरूप अव्याबाध अनन्त सुख नामक अष्टम गुण सिद्धों में कहा जाता है । ये जो सम्यक्त्व आदि अष्ट गुण कहे गये हैं सो मध्यमरुचिके धारक शिष्योंके लिये हैं और विस्तारमें मध्यमरुचि के धारक शिष्यके प्रति तो विशेष भेदनयका अवलम्बन करनेसे गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितत्व, योगरहितत्व, वेदरहितता, कषायरहितत्व, नामरहितत्व, गोत्ररहितत्व तथा आयुरहितत्व आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्य गुण ऐसे अपने जैनागमके अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिये । और संक्षेपरुचि शिष्यके प्रति तो विवक्षित अभेद नयसे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य ये चार गुण अथवा अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुखरूप तीन गुण वा केवल ज्ञान और केवल दर्शन ये दो गुण हैं और साक्षात् अभेदनयसे शुद्ध चैतन्य यह एक ही गुण सिद्धोंका है । पुनः वे सिद्ध कैसे हैं इसलिये कहते हैं कि वे सिद्ध चरम ( अन्तके ) शरीरसे कुछ छोटे होते हैं और वह जो किञ्चित् 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only हलका ) हो तो वायुसे परन्तु सिद्धस्वरूप ऐसा www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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