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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [टीकाकारका मंगलाचरण पासितस्य भेदाभेदरत्नत्रयभावनाप्रियस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य भाण्डागाराधनेकनियोगाधिकारिसोमाभिधानराजश्रेष्ठिनो निमित्तं श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवैः पूर्व षड्विंशतिगाथाभिलघुद्रव्यसंग्रह कृत्वा पश्चाद्विशेषतत्त्वपरिज्ञानार्थ विरचितस्य बृहद्रव्यसंग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्तिः प्रारभ्यते । तत्रादौ "जीवमजीवं दवं" इत्यादिसप्तविंशतिगाथापर्यन्तं षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा प्रथमोऽधिकारः । तदनन्तरं "आसवबंधण" इत्याद्येकादशगाथापर्यन्तं सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादनमुख्यतया द्वितीयो महाधिकारः। ततः परं "सम्मदंसणणाणं" इत्यादिविंशतिगाथापर्यन्तं मोक्षमार्गकथनमुख्यत्वेन तृतीयोऽधिकारश्च । इत्यष्टाधिकपञ्चाशद्गाथाभिरधिकारत्रयं ज्ञातव्यम् ॥ तत्राप्यादौ प्रथमाधिकारे चतुर्दशगाथापर्यन्तं जीवद्रव्यव्याख्यानम् । ततः परं "अज्जीवो पुण णेओ" इत्यादिगाथाष्टकपर्यन्तमजीवद्रव्यकथनम् । ततःपरं एवं छन्भेयमिदं" एवं सूत्रपञ्चकपर्यन्तं पञ्चास्तिकायविवरणम् । इति प्रथमाधिकारमध्येऽन्तराधिकारत्रयमवबोद्धव्यम् ॥ तत्रापि भयसे डरा हुआ, परमात्माकी भावनासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतरसका पान करनेकी ( पीनेकी) इच्छा रखनेवाला, भेद अभेद रत्नत्रय अर्थात् व्यवहार और निश्चय इन दो भेदोंका धारक जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रय है उसकी भावना है प्यारी जिसके, भव्यजनशिरोमणी तथा भांडागार ( खजाना ) आदि अनेक नियोगोंका ( कामोंका ) स्वामी ऐसा जो श्रीसोमनामक राजश्रेष्ठी ( राजाका शेठ ) था उसके निमित्त श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवने पहिले छब्बीस गाथासूत्रोंसे लघुद्रव्यसंग्रह नामक ग्रन्थ रचकर तत्पश्चात् विशेष तत्त्वोंके जाननेके लिये जो बृहद्रव्यसंग्रह नामक शास्त्र निर्मित किया उस बृहद्रव्यसंग्रह ग्रंथकी अधिकारशुद्धिपूर्वकतासे अर्थात् पहिले अधिकारोंकी छाँट करके तत्पश्चात् वृत्तिको अर्थात् व्याख्या (विशेषवर्णन) को प्रारम्भ करता हूँ। उस बहद्रव्यसंग्रह नामक शास्त्रमें प्रथम ही "जीवमजीवं दव्वं" इस गाथाको आदिमें लेकर "जावदियं आयासं' इस सत्ताईसवों गाथापर्यन्त जीव १, पुद्गल २, धर्म ३, अधर्म ४, आकाश ५. और काल ६. इन छहों द्रव्योंका तथा जीव १. पुद्गल २, धर्म ३, अधमं ४, और आकाश ५, इन पाँचों अस्तिकायोंका निरूपण करनेवाला षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादक नामा प्रथम अधिकार है। इसके पश्चात "आसवबंधणसंवर" इस गाथाको आदिमें लेकर "सुहअसुहभावजुत्ता" इस अड़तीसवीं गाथापर्यन्त जीव १, अजीव २, आस्रव ३, बंध ४, संवर ५, निज्जरा ६, और मोक्ष ७, इन सातों तत्त्वोंका और जीव १, अजीव २, आस्रव ३, वंध ४, संवर ५, निजरा ६, मोक्ष ७, पूण्य ८, और पाप ९, इन नवों पदार्थोंका मुख्यतासे कथन करनेवाला सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादक नामा द्वितीय महाअधिकार है। इसके अनन्तर "सम्मइंसणणाणं" इस गाथासूत्रको आदिमें लेकर बीस गाथाओंपर्यन्त मुख्यतासे मोक्षमार्गका कथन करनेवाला मोक्षमार्गप्रतिपादक नामा तृतीय अधिकार है। इस प्रकार अट्ठावन गाथाओंसे तीन अधिकार जानने चाहिये। उन तीनों अधिकारोंमें भी आदिका जो प्रथम अधिकार है उसमें चौदह गाथाओंपर्यन्त जीवद्रव्यका व्याख्यान करनेवाला जीवद्रव्यप्रतिपादक नामा प्रथम अन्तराधिकार है, इसके अनन्तर 'अज्जीवो पुण ओ" इस गाथाको आदिमें लेकर “णिकम्मा अट्टगणा" इस गाथापर्यन्त आठ गाथाओंसे अजीवद्रव्यका वर्णन करनेवाला अजीवद्रव्यप्रतिपादक नामा द्वितीय १. प्रथम और द्वितीय अधिकारके मध्यमें “परिणामिजीवमुत्तं" इत्यादि दो गाथाओंसे प्रथम अधिकारकी चूलिका भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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