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________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः एवं चतुर्दशजीवसमासा ज्ञातव्यास्तेषां च "इंदियकायाऊणिय पुण्णापुण्णेसु पुष्णगे आणा । इंदियादि पुणे सुवचिमणोसण्ण पुण्णे य । १ । दस सण्णीणं पाणा सेसेगूणंति मण्णवे ऊणा । पज्जत्ते मिदरेसुयसत्तदुगे सेसेगेगूणा । २।” इति गाथाद्वयकथितक्रमेण यथासंभवमिन्द्रियादिदशप्राणाश्च विज्ञेयाः । अत्रैतेभ्यो भिन्नं निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः ॥ १२ ॥ २५ अथ शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शुद्धबुद्ध कस्वभावा अपि जीवाः पश्चादशुद्धनयेन चतुर्दशमार्गणास्थानचतुर्दशगुणस्थानसहिता भवन्तीति प्रतिपादयति; - मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुगुणया । विष्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ।। १३ ।। मार्गणागुणस्थानैः चतुर्दशभिः भवन्ति तथा अशुद्धनयात् । विज्ञेयाः संसारिणः सर्वे शुद्धाः खलु शुद्धनयात् ॥ १३ ॥ व्याख्या- - " मग्गणगुणठाणेहि य हवंति तह विष्णेया" यथा पूर्वसूत्रोदितचतुर्दशजीवसमासैर्भवन्ति मार्गणागुणस्थानैश्च तथा भवन्ति संभवन्तीति विज्ञेया ज्ञातव्याः । कतिसंख्योपेतैः " चउदसहि" प्रत्येकं चतुर्दशभिः । कस्मात् " असुद्धणया" अशुद्धनयात् सकाशात् । समास जानने चाहिये । " पर्याप्त अवस्था में संज्ञी पंचेन्द्रियोंके १० प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके मनके विना ९ प्राण, चौइंद्रियोंके मन और कर्णके विना ८ प्राण, तेइंद्रियोंके मन, कर्ण और चक्षुके बिना ७ प्राण दोइन्द्रियोंके मन कर्ण, चक्षु और घ्राणके विना ६ प्राण और एकेन्द्रियोंके मन, कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना तथा वचनबलके बिना ४ प्राण होते हैं । अपर्याप्त अवस्थाके धारक जीवों में संज्ञी तथा असंज्ञी इन दोनों पंचेन्द्रियोंके श्वासोश्वास, वचनबल और मनोबलके बिना ७ प्राण होते हैं और चौइन्द्रिय आदि एकेन्द्रियपर्यंत शेष जीवोंके क्रमानुसार एक एक प्राण घटता हुआ है । २ ।" इन दो गाथाओं द्वारा कहे हुए क्रमसे यथासंभव इन्द्रियादि दश प्राण समझने चाहिये । यहाँ पर कथनका अभिप्राय यह है कि इन पूर्वोक्त पर्याप्तियों तथा प्राणोंसे भिन्न जो अपना शुद्ध आत्मतत्त्व है, उसको ग्रहण करना चाहिये ॥ १२ ॥ अब शुद्ध पारिणामिक परम भावका ग्राहक जो शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है, उससे सब जीव शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव के धारक हैं, तो भी अशुद्धनयसे चौदह मार्गणास्थान और चौदह गुणस्थानोंसहित होते हैं ऐसा कथन करते हैं: गाथाभावार्थ -- संसारी जीव अशुद्ध नयसे चौदह मार्गणास्थानोंसे तथा चौदह गुणस्थानोंसे चौदह चौदह प्रकार के होते हैं, और शुद्धनयसे तो सब संसारीजीव शुद्ध ही हैं || १३ || व्याख्यार्थ -- " मग्गणगुणठाणेहि य हवंति तह विष्णेया" जिस प्रकार " समणा अमणा" इत्यादि पूर्वगाथामें कहे हुए चतुर्दश जीवसमासोंसे जीवोंके चतुर्दश भेद होते हैं उसी प्रकार मार्गणा और गुणस्थानों से भी होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। कितनी संख्या के धारक मार्गणा और गुणस्थानोंसे होते हैं ? " चउदसहि" प्रत्येक चतुर्दश संख्या के धारकोंसे । किस अपेक्षासे ? “असुद्धणया" अशुद्धनयकी अपेक्षासे । चतुर्दश मार्गणा और चतुर्दश गुणस्थानों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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