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________________ २६ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार इत्थंभूताः के भवन्ति । “संसारी" सांसारिजीवाः " सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" त एव सर्वे संसारिणः शुद्धाः सहजशुद्धज्ञायकैकस्वभावाः । कस्मात् शुद्धनयात् शुद्धनिश्चयनयादिति । अथागमप्रसिद्धगाथायेन गुणस्थाननामानि कथयति । “मिच्छो सासणमिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरया पमत्त इयरो अपुव्व अणियट्ठि सुहमो य । १ । उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगीया । चउदसगुणठाणाणि य कमेण सिद्धा य णायव्वा । २ ।" इदानीं तेषामेव गुणस्थानानां प्रत्येकं संक्षेपलक्षणं कथ्यते । तथाहि - सहजशुद्ध केवलज्ञानदर्शनरूपा खण्डैक प्रत्यक्ष प्रतिभासमयनिजपरमात्मप्रभृतिषद्रव्य पञ्चास्तिकाय सप्त तत्त्व नवपदार्थेषु मूढत्रयादिपञ्चविंशतिमलरहितं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिर्भवति । पाषाण रेखासदृशानन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान्यतरोदयेन प्रथममोपशमिक सम्यक्त्वात्पतितो मिथ्यात्वं नाद्यापि गच्छतीत्यन्तरालवर्ती सासादनः । निजशुद्धात्मादितत्त्वं वीतराग सर्वज्ञ प्रणीतं परप्रणीतं च मन्यते यः स दर्शनमोहनीयभेदमिश्र कर्मोदयेन दधिगुडमिश्रभाववत् मिश्रगुणस्थानवर्त्ती भवति । अथ मतं - येन केनाप्येकेन मम देवेन प्रयोजनं तथा सर्वे देवा वन्दनीया न च निन्दनीया इत्यादिवैनयिक मिथ्यादृष्टिः संशयमिथ्यादृष्टिर्वा तथा मन्यते तेन सह सम्यग्मिथ्यादृष्टः को विशेष इति, अत्र परिहारः - "स सर्वदेवेषु सर्वसमयेषु च भक्तिपरिणामेन येन केनाप्येकेन अशुद्धनयको अपेक्षासे चौदह चौदह प्रकारके होनेवाले कौन हैं ? "संसारी" संसारी जीव हैं । " सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" वे ही सब संसारी जीव शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे शुद्ध अर्थात् स्वभावसे उत्पन्न जो शुद्ध ज्ञायक ( जाननेवाला ) रूप एक स्वभाव उसके धारक हैं । अब शास्त्रों में प्रसिद्ध जो दो गाथा हैं, उनके द्वारा गुणस्थानोंके नाम कहते हैं । गाथार्थ - " मिथ्यात्व १ सासादन २ मिश्र ३ अविरतसम्यक्त्व ४ देशविरत ५ प्रमत्तविरत ६ अप्रमत्तविरत ७ अपूर्वकरण ८ अनिवृत्तिकरण ९ सूक्ष्मसाम्पराय १० उपशान्तमोह ११ क्षीणमोह १२ सयोगि केवल जिन १३ और अयोगि केवल जिन १४ इस प्रकार क्रमानुसार चौदह गुणस्थान जानने चाहिये । २ । ” अब इन गुणस्थानोंमेंसे प्रत्येकका संक्षेप लक्षण कहते हैं; - जैसे स्वाभाविक शुद्ध केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप जो अखण्ड प्रत्यक्ष प्रतिभास है तादृश प्रत्यक्ष प्रतिभासमय जो निजपरमात्मा ( अपना शुद्ध (जीव ) वह है आदिमें जिसके ऐसे जो षट् द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात सत्त्व और नव पदार्थ उनमें तीन मूढता आदि पचीस मल ( दोष ) रहितत्वपूर्वक वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए नयविभाग से जिस जीवके श्रद्धान नहीं है वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है । १ । पाषाणरेखा ( पत्थर में की हुई लकीर ) के समान जो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं; उनमें से किसी एकके उदयसे प्रथम जो औपशमिक सम्यक्त्व है उससे जीव गिरकर जबतक मिथ्यात्वको प्राप्त न हो तबतक सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनों के बीच में विद्यमान जो जीव है वह सासादन है । २ । जो अपने शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वको वीतराग सर्वज्ञका कहा हुआ भी मानता है और अन्य मतके आचार्यों द्वारा कहा हुआ भी मानता है वह दर्शनमोहनीय कर्मका भेद जो मिश्रकर्म है उसके उदयसे दही और गुड़ मिले हुए पदार्थकी भाँति तीसरा जो मिश्र गुणस्थान है उसमें रहनेवाला जीव है । ३ । अब कोई शंका करे कि चाहे जिससे हो मुझे तो एक देवसे प्रयोजन है अथवा सब देवोंकी वन्दना करनी योग्य है, निन्दा किसी भी देवकी न करनी चाहिये इस प्रकार वैनयिक मिथ्यादृष्टि और संशयमिथ्यादृष्टि मानता है तब उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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