________________
पद्रव्य - पञ्चास्तिकाय वर्णन ]
बृहद्रव्य संग्रहः
मम पुण्यं भविष्यतीति मत्वा संशयरूपेण भक्तिं कुरुते निश्चयो नास्ति । मिश्रस्य पुनरुभयत्र निश्चयोऽस्तीति विशेषः । स्वाभाविकानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सवंज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनय साध्यसाधकभावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलव र गृहीत तस्कर वदात्मनिन्दादिसहितः सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् । यः पूर्वोक्तप्रकारेण सम्यग्दृष्टिः सन् भूमिरेखादिसमानक्रोधादिद्वितीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेनैकदेशरागादि
२७
रहितस्वाभाविकसुखानुभूतिलक्षणेषु बर्हिविषये पुनरेकदेशहिसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु "दंसणवय सामाइयपो सहसचित्तराइभत्ते य । बंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य । १ । " इति गाथाकथितैकादशनिलयेषु वर्त्तते स पञ्चम गुणस्थानवर्ती श्रावको भवति । ५ । स एव सद्दृष्टिधूलि रेखादिसदृशक्रोधादितृतीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेन रागाद्युपाधिरहितस्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतानुभवलक्षणेषु बहिर्विषयेषु पुनः सामस्त्येन हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु च पञ्चमहाव्रतेषु वर्त्तते यदा तदा दुःस्वप्नादिवयक्ताव्यक्तप्रमादसहितोऽपि
साथ मिश्र गुणस्थानवर्ती सम्यग् मिथ्यादृष्टिका क्या भेद है अर्थात् वैनयिक वा संशयमिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में क्या भेद है जिससे उसको जुदा कहा ? इस शंकाका खण्डन यह है कि वैनयिक मिथ्यादृष्टि अथवा संशय मिथ्यादृष्टि तो सम्पूर्ण देवों में तथा सब शास्त्रों में किसी एक की भक्ति के परिणामसे मुझे पुण्य होगा अर्थात् इन सबकी सेवा करने से किसी एककी तो सेवा सफल होगी ऐसा मानकर संशयरूपसे भक्ति करता है; क्योंकि उसको किसी देवमें निश्चय नहीं है कि यह सत्य है और मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवके दोनोंमें निश्चय है । बस यही विशेष है । जो स्वभावसे उत्पन्न जो अनन्तज्ञान आदि अनन्त गुण हैं उनका आधारभूत निज परमात्मद्रव्य तो उपादेय है और इन्द्रियोंके सुख आदि परद्रव्य हेय ( त्याज्य ) हैं ऐसे अर्हत् सर्वज्ञ देव से प्रणीत निश्चय तथा व्यवहारनयको साध्य-साधक भावसे मानता है, परन्तु भूमिकी रेखाके तुल्य क्रोध आदि द्वितीय कषायभेदके अर्थात् प्रत्याख्यानकषायके उदयसे मारनेके लिये कोतवालसे पकड़े हुए चोरकी भाँति आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रियोंके सुखोंका अनुभव करता है वह अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थानवर्त्ती जीवका स्वरूप है । ४ । जो पूर्वोक्त प्रकार से सम्यग्दृष्टि होकर भूमिरेखादिके समान प्रत्याख्यान क्रोध आदि कषायोंके उदयका अभाव होनेपर अन्तरंग में निश्चयनयसे एकदेशराग आदिसे रहित स्वाभाविक सुखके अनुभवलक्षण तथा बाह्य में “हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इनके एकदेशत्याग लक्षण पाँच अणुव्रतों में और दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरत, रात्रिभक्त, ब्रह्मचर्य, आरम्भविरत, परिग्रहविरत अनुमतिविरत तथा उद्दिष्टविरत । १ ।" इस प्रकार गाथा में कहे हुए जो श्रावकके एकादश स्थान हैं उनमें वर्त्तता है वह पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावक जीव होता है । ५ । वही सम्यग्दृष्टि धूलिरेखा ( माटीकी रेखा ) के समान अप्रत्याख्यान क्रोध आदि तृतीय कषायों के उदयका अभाव होनेपर निश्चयनयसे अन्तरङ्गमें राग आदिकी उपाधिसे रहित जो निज शुद्ध आत्माका ज्ञान है उससे उत्पन्न सुखामृतके अनुभव लक्षणके धारक और बाह्य विषयों में सम्पूर्णरूप से हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहके त्यागरूप लक्षणके धारक पाँच महाव्रतोंमें जब वर्त्तता है तब बुरे स्वप्न आदि प्रकट तथा अप्रकट प्रमाद सहित होता
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org