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________________ २८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयतो भवति ।६। स एव जलरेखादिसशसंज्वलनकषायमन्दोदये सति निष्प्रमादशुद्धात्मसंवित्तिमलजनकव्यक्ताव्यक्तप्रमादरहितः सन्सप्तमगुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयतो भवति । ७ । स एवातीतसंज्वलनकषायमन्दोदये सत्यपूर्वपरमाह्लादैकसुखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवतॊ भवति । ८। दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षादिरूपसमस्तसङ्कल्परहितनिजनिश्चलपरमात्मतत्त्वैकाग्रध्यानपरिणामेन कृत्वा येषां जीवानामेकसमये ये परस्परं पृथक्कर्तुं नायान्ति ते वर्णसंस्थानादिभेदेऽप्यनिवृत्तिकरणौपशमिकक्षपकसंज्ञा द्वितीयकषायाद्येकविंशतिभेदभिन्नचारित्रमोहप्रकृतीनामुपशमक्षपणसमर्था नवमगुणस्थानत्तिनो भवन्ति । ९ । सूक्ष्मपरमात्मतत्त्वभावनाबलेन सूक्ष्मकृष्टिगतलोभकषायस्योपशमकाः क्षपकाश्च दशमगुणस्थानत्तिनो भवन्ति । १० । परमोपशममूर्तिनिजात्मस्वभावसंवित्तिबलेन सकलोपशान्तमोहा एकादशगुणस्थानवतिनो भवन्ति । ११ । उपशमश्रेणिविलक्षणेन क्षपकश्रेणिमार्गेण निष्कषायशुद्धात्मभावनाबलेन क्षीणकषाया द्वादशगुणस्थानतिनो भवन्ति । १२ । मोहक्षपणानन्तरमन्तर्मुहूर्त्तकालं स्वशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणैकत्ववितर्कावीचारद्वितीयशुक्लध्याने स्थित्वा तदन्त्यसमये ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायत्रयं युगपदेकसमयेन निर्मूल्य मेघपञ्जरविनिर्गतदिनकर इव सकलविमलकेवलज्ञानकिरणैलोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानत्तिनो जिनभास्करा भवन्ति । १३ । मनोवचनकायवर्गणालम्बनकर्मादाननिमित्तात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोगरहिताश्चतुर्दशगुणस्थानत्तिनोऽयो हुआ भी षष्ठ गुणस्थानमें रहनेवाला प्रमत्त संयत होता है। ६। वही जलरेखाके तुल्य संज्वलन कषायका मन्द उदय होनेपर प्रमादरहित जो शुद्ध आत्माका ज्ञान है उसमें मल ( दोष ) को उत्पन्न करनेवाले व्यक्त (प्रकट ) तथा अव्यक्त ( अप्रकट ) इन दोनों प्रमादोंसे वजित होकर सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्त संयत होता है । ७ । वही अतीत संज्वलन कषायका मन्द उदय होनेपर अपूर्व परम आह्लादरूप सुखके अनुभवलक्षण अपूर्व करणमें औपशमिक क्षपक नामका धारक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है । ८ । देखे हुए, सुने हुए, और अनुभव किये हुए भोगोंकी वाञ्छादिरूप सम्पूर्ण संकल्प तथा विकल्परहित अपने निश्चल परमात्मस्वरूपके एकाग्र ध्यानके परिणामसे जिन जीवोंके एक समय में परस्पर पृथक्ता करने में नहीं आती वे वर्ण तथा अवयवरचनाका भेद होनेपर भी अनिवृत्तिकरणौपशमिक क्षपक संज्ञाके धारक, द्वितीय कषाय आदि इक्कीस भेदोंसे भिन्न अर्थात् इक्कीस प्रकारको चारित्रमोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंके उपशमन और क्षपणमें समर्थ नवम गुणस्थानवी जीव हैं । ९ । सूक्ष्म परमात्मतत्त्वको भावनाके बलसे जो सूक्ष्म कृष्टि गत लोभ कषायके उपशामक और क्षपक हैं वे दशम गुणस्थानवर्ती हैं । १० । परम उपशममूत्ति निज आत्माके स्वभावके ज्ञानके बलसे संपूर्ण मोहको उपशान्त करनेवाले ग्यारहवें गणस्थानवी जीव होते हैं। ११ । उप श्रेणीसे विलक्षण ( भिन्नरूप ) जो क्षपक श्रेणीका मार्ग उसके द्वारा कषायोंसे रहित शुद्ध आत्माकी भावनाके बलसे क्षीण ( नष्ट ) हो गये हैं कषाय जिनके ऐसे बारहवें गुणस्थानवी जीव होते हैं। १२ । मोहके नाश होने के पश्चात् अन्तमुहर्त कालमें ही निज शुद्ध आत्माके ज्ञानरूप एकत्व वितर्क अविचार संज्ञक द्वितीय शुक्ल ध्यानमें स्थित होकर उसके अंतिम समयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों को एक कालमें ही सर्वथा निमल करके मेघपटलसे निकले हुए सूर्यके सदृश संपूर्ण रूपसे निर्मल केवलज्ञान किरणोंसे लोक तथा अलोकके प्रकाशक तेरहवें गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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