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________________ द्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः गिजिना भवति । १४ । ततश्च निश्चयरत्नत्रयात्मक कारणभूत समयसारसंज्ञेन परमयथाख्यातचारित्रेण चतुर्दशगुणस्थानातीताः ज्ञानावरणाद्यष्ट कर्मरहिताः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान्तर्भूतनिर्नामगोत्राद्यनन्तगुणाः सिद्धा भवन्ति । अत्राह शिष्यः - केवलज्ञानोत्पत्तौ मोक्षकारणभूत रत्नत्रयपरिपूर्णतायां सत्यां तस्मिन्नेव क्षणे मोक्षेण भाव्यं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये कालो नास्तीति । परिहारमाह-यथाख्यातचारित्रं जातं परं किन्तु परमयथाख्यातं नास्ति । अत्र दृष्टान्तः । यथा चौरव्यापाराभावेऽपि पुरुषस्य चौरसंसर्गो दोषं जनयति तथा चारित्र विनाशकचारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरणविलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषाघातिकर्मतीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मन्दोदये सति चारित्रमलाभावान्मोक्षं गच्छति । इति चतुर्दशगुणस्थानव्याख्यानं गतम् । इदानीं मार्गणाः कथ्यन्ते । " गइ इंदियं च काये जोए वेए कसाय णाणे य । संयम दंसण लेस्सा भविआ समत्तसणि आहारे । १ ।” इति गाथाकथितक्रमेण गत्या - दिचतुर्दशमार्गणा ज्ञातव्याः । तद्यथा - स्वात्मोपलब्धिसिद्धिविलक्षणा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतिभेदेन चतुविधा गतिमार्गणा भवति । १ । अतीन्द्रियशुद्धात्मतत्त्वप्रतिपक्षभूता स्थानवर्त्ती जिनभास्कर ( सूर्य ) होते हैं । १३ । वे ही मन, वचन और कायवर्गणाके आलम्बनसे कर्मोंके ग्रहण करनेमें कारण जो आत्माके प्रदेशोंका परिस्पन्द ( संचलन ) रूप योग है उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्त्ती अयोगी जिन होते हैं । १४ || और इसके पश्चात् निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रयका कारणभृत समयसार संज्ञक जो परम यथाख्यात चारित्र है उससे पूर्वोक्त चौदह गुणस्थानोंसे रहित, ज्ञानावरण आदि अष्ट कर्मोंसे वर्जित तथा सम्यक्त्व आदि अष्ट गुणोंमें गर्भित निर्नाम ( नामरहित), निर्गोत्र ( गोत्ररहित ) आदि अनन्त गुणसहित सिद्ध होते है । अब यहाँ शिष्य शंका करता है कि केवलज्ञानकी उत्पत्ति में जब मोक्षके कारणभूत रत्नत्रयकी पूर्णता हो गई तो उसी समय मोक्ष होना चाहिये, आपने जो सयोगी और अयोगी दो गुणस्थान कहे हैं इनमें रहनेका कोई समय ही नहीं है । अब इस शंकाका परिहार कहते हैं कि केवलज्ञानोत्पत्तिसमय में यथाख्यात चारित्र तो हो गया परन्तु परम यथाख्यात नहीं है । यहाँ पर दृष्टान्त यह है कि जैसे कोई मनुष्य चोरी नहीं करता है परन्तु उसको चोरके संसर्गका दोष लगता है उसी प्रकार सयोग केवलियोंके चारित्रका नाश करनेवाला जो चारित्रमोहका उदय है उसका अभाव है तथापि निष्क्रिय ( क्रियारहित ) शुद्ध आत्माके आचरणसे विलक्षण जो मन, वचन, कायरूप योगत्रयका व्यापार है वह चारित्रके दूषण उत्पन्न करता है और तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अन्तसमयको छोड़कर शेष चार अघातिया कर्मोंका तीव्र उदय चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अन्त्य समय में उन अघातिया कर्मोंका मन्द उदय होनेपर चारित्र में दोषका अभाव हो जाता है इस कारण उसी समय अयोगी जिन मोक्षको प्राप्त होते हैं । इस प्रकार चौदह गुणस्थानोंका व्याख्यान समाप्त हुआ । अब चौदह मार्गणाओंका कथन किया जाता है । "गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा तथा आहार । १ ।” इस गाथा में कथित क्रमसे गति आदि चतुर्दश मार्गणा जाननी चाहिये वे इस प्रकार हैं, जैसे- निज आत्माकी प्राप्तिसे विलक्षण नारक, तिर्यग्, मनुष्य तथा देवगति भेदसे गतिमार्गणा चार प्रकारकी है । १ । अतीन्द्रिय ( इन्द्रियोंके अगोचर ) Jain Education International २९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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