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श्रीमद्राजचन्द्रजैन शास्त्रमालायाम्
[ तृतीय अधिकार ज्ञानं जातमिति श्रीवीरवर्द्धमानस्वामितीर्थकर परमदेवसमवसरणमध्ये श्रेणिकमहाराजेन पृष्टे सति गौतमस्वामी आह । " पञ्चमुष्टिभिरुत्पाद्य त्रोटयन् बन्धस्थितीन् कचान् । लोचानन्तरमेवापद्राजन् श्रेणिक केवलम् । १।"
अत्राह शिष्यः । अद्य काले ध्यानं नास्ति । कस्मादिति चेत् — उत्तमसंहननाभावाद्दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानाभावाच्च । अत्र परिहारः । शुक्लध्यानं नास्ति धर्मध्यानमस्तीति । तथा चोक्तं मोक्षप्राभृते श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः "भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ णाणिस्स । तं अप्पसहावठिए हुमण्णइ सो दुअण्णाणी । १ । अज्जवि तियरणसुद्धा अप्पा ज्झाऊण लहइ इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थचुदा निब्बुद जंति । २ ।” तथैव तत्त्वानुशासनग्रन्थे चोक्तं "अत्रेदानों निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राग्विवत्तनाम् । १।" यथोक्तमुत्तमसंहननाभावात्तदुत्सर्ग वचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुनरुपशमक्षपकश्रेण्योः शुक्लध्यानं भवति, तच्चोत्तमसंहननेनैव । अपूर्वगुणस्थानादधस्तनेषु गुणस्थानेषु धर्मध्यानं, तच्चादिमत्रिकोत्तमसंहननाभावेऽप्यन्तिमत्रिसंहननेनापि भवति । तदप्युक्तं तत्रैव तत्त्वानुशासने “यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः ।
दीक्षा के विधानका कथन करते हैं । श्री वीर वर्द्धमानस्वामी तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में श्रेणिकमहाराजने प्रश्न किया कि 'हे भगवन् ! श्रीभरतचक्रवर्तीके जिनदीक्षाको ग्रहण करने के पीछे कितने कालमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ?' इस पर श्रीगौतमस्वामी गणधरदेवने उत्तर दिया कि "हे श्रेणिक राजन् ! बंधके कारणभूत जो केश (बाल) हैं उनको पाँच मुष्टियोंसे उखाड़कर तोड़ते हुए ही अर्थात् पंचमुष्टी लोच करने के अनन्तर ही श्रीभरतचक्रवर्ती केवलज्ञानको प्राप्त हुए |१| "
अब यहाँ पर शिष्य कहता है कि, भो गुरो ! इस पंचम कालमें ध्यान नहीं है । क्यों नहीं है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि इस कालमें उत्तमसंहननका अर्थात् वज्र, वृषभ और नाराच संहननोंका अभाव है और दश तथा चौदहपूर्वपर्यन्त श्रुतज्ञानका अभाव है । अब आचार्य महाराज इस शिष्यकी शंका को दूर करते हैं कि, हे शिष्य ! इस समय में शुक्लध्यान नहीं है परन्तु धर्मध्यान तो है ही । सो ही श्रीकुन्दकुन्द आचार्यस्वामी मोक्षप्राभृत ( मोक्षपाहुड ) में कहते हैं कि, "भरतक्षेत्रमें जो दुःषमा अर्थात् पंचमकाल है उसमें ज्ञानी जीवके धर्मध्यान होता है । उसको जो कोई आत्माके स्वभाव में स्थित नहीं मानता है वह अज्ञानी है । १ । क्योंकि इस समय भी जो सम्यग् - दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय है उससे शुद्ध हुए जीव आत्माका ध्यान करके इन्द्रपनेको अथवा लौकान्तिकदेवपनेको प्राप्त होते हैं । और वहाँसे चयकर नरपर्यायको ग्रहण करके उसी भवमें मोक्षको जाते हैं । २।" और इसीप्रकार तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थ में भी कहा है कि, “इस समय ( पंचमकाल ) में श्रीजिनेन्द्रदेव शुक्लध्यानका निषेध करते हैं; अर्थात् इससमय में शुक्लध्यान नहीं होता ऐसा उपदेश देते हैं; और उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी इन दोनों श्रेणियों से पहिले रहनेवाले जीवोंके धर्मध्यान होता है ऐसा कथन करते हैं । १ ।" और हे शिष्य ! तुमने जो यह कहा कि 'इस कालमें उत्तमसंहननका अभाव है इस कारण ध्यान नहीं होता' सो यह उत्सर्गवचन है । अपवादरूप व्याख्यानसे तो उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी में शुक्लध्यान होता है और वह उत्तमसंहननसे ही होता है । और अपूर्वकरण नामक ८ वे गुणस्थानसे नीचे जो गुणस्थान हैं उनमें धर्मध्यान होता है । और वह धर्मध्यान वज्र १, वृषभ २, नाराच ३, इन आदिके तीन उत्तम संहननोंका अभाव होनेपर अन्तके जो अर्धनाराच १, कीलक २, और स्फाटिक नामक तीन संहनन हैं उनसे भी होता है । यह विषय भी उसी तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थमें कहा है कि,
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