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मोक्षमार्ग वर्णन ]
बृहद्रव्यसंग्रहः
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श्रेयोर्थ्यानं प्रतीत्योक्तं तन्नोऽधस्तानिषेधकम् । १।" यथोक्तं दशचतुर्दश पूर्वं गतश्रुतज्ञानेन ध्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुनः पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादक सारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति केवलज्ञानञ्च । यद्येवमपवादव्याख्यानं नास्ति तहि "तुसमासं घोसन्तो सिवभूदी केवली जादो" इत्यादिगन्धर्वाराधनादिभणितं व्याख्यानं कथं घटते ?
अथ मतं - पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकं द्रव्यश्रुतमिति जानाति । इदं भावश्रुतं पुनः सर्वमस्ति । नैवं वक्तव्यम् । यदि पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकं द्रव्यश्रुतं जानाति तहि 'मा रूसह मा तूसह ' इत्येकं पदं किं न जानाति । तत एव ज्ञायतेऽष्टप्रवचनमातृप्रमाणमेव भावश्रुतं द्रव्यश्रुतं पुनः किमपि नास्ति । इदन्तु व्याख्यानमस्माभिर्न कल्पितमेव । तच्चारित्रसारादिग्रन्थेष्वपि भणितमास्ते । तथाहि - अन्तर्मुहूर्त्ता दूध्वं ये केवलज्ञानमुत्पादयन्ति ते क्षीणकषायगुणस्थानवत्तनो निर्ग्रन्थसंज्ञा ऋषयो भण्यन्ते । तेषां चोत्कर्षेण चतुर्दशपूर्वादिश्रुतं भवति, जघन्येन पुनः पञ्चसमिति त्रिगुप्ति मात्रमेवेति ।
अथ मतं - मोक्षार्थं ध्यानं क्रियते न चाद्य काले मोक्षोऽस्ति; ध्यानेन कि प्रयोजनम् ? नैवं- - अद्य कालेऽपि परम्परया मोक्षोऽस्ति । कथमिति चेत्, स्वशुद्धात्मभावनाबलेन संसारस्थिति
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"और जो वज्र काय ( संहनन ) के धारकके ध्यान होता है ऐसा आगममें वचन है वह उपशम तथा क्षपक श्रेणी के ध्यानको प्रतीतिगोचर करके कहा है; इस कारण यह वचन नीचेके गुणस्थानों में धर्मध्यानका निषेध करनेवाला नहीं है ।" तथा जो ऐसा कहा है कि 'दश तथा चौदह पूर्व - गत श्रुतज्ञानसे ध्यान होता है' वह भी उत्सर्गका वचन है । और अपवादके व्याख्यानसे तो पाँच समिति और तीन गुप्तिको प्रतिपादन करनेवाला सारभूत श्रुतज्ञान है उससे भी ध्यान और केवलज्ञान होता है । यदि ऐसा अपवाद व्याख्यान न हो तो " तुषमाषका उच्चारण ( अभ्यास ) करते हुए श्रीशिवभति मुनि केवलज्ञानी हो गये" इत्यादि गंधर्वाराधनादि ग्रन्थों में कहा हुआ कथन कैसे सिद्ध होवे ?
अब कदाचित् ऐसा मत हो कि, शिवभूतिमुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियोंको प्रतिपादन करनेवाले द्रव्यश्रुत (शास्त्र) को जानते थे और यह भावश्रुत उनके संपूर्ण रूपसे था सो ठीक नहीं । क्योंकि, यदि शिवभूतिमुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियोंका कथन करनेवाले द्रव्यश्रुत (शास्त्र) को जानते थे तो उन्होंने " मा तूसह मा रूसह " अर्थात् किसीमें राग और द्वेष मत कर इस एक पदको क्यों नहीं जाना ? इसी कारणसे जाना जाता है कि पाँच समिति और तीन गुप्तियों रूप जो आठ प्रवचन मातायें हैं उन प्रमाण ही उनके भावश्रुत था और द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं था । और यह व्याख्यान हमने ही नहीं कल्पित किया है; किन्तु 'चारित्रसार' आदि शास्त्रों में भी यह वर्णन किया हुआ है । सो ही दिखलाते हैं - अन्तर्मुहूर्त्तके पीछे जो केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं वे क्षीणकषाय नामक १२ वें गुणस्थान में रहने वाले निर्ग्रन्थ संज्ञाके धारक ऋषि कहलाते हैं, और उनके उत्कृष्टतासे ग्यारह अंग चौदह पूर्वपर्यन्त श्रुतज्ञान होता है, और जघन्यरीति से पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों जितना ही श्रुतज्ञान होता है ।
अब कदाचित् तुम्हारा यह मत हो कि, मोक्षके लिये ध्यान किया जाता है और मोक्ष इस पंचमकालमें होता नहीं है इस कारण ध्यानके करनेसे क्या प्रयोजन है ? सो यह सिद्धान्त भी ठीक नहीं। क्योंकि, इस पंचमकालमें भी परम्परासे मोक्ष है । परम्परासे मोक्ष कैसे है ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि ध्यानी पुरुष निजशुद्ध आत्माकी भावनाके बलसे संसारकी स्थितिको
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