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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ तृतीय अधिकार
स्तोकां कृत्वा देवलोकं गच्छति, तस्मादागत्य मनुष्यभवे रत्नत्रयभावनां लब्ध्वा शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति । येऽपि भरतसगररामपाण्डवादयो मोक्षं गतास्तेपि पूर्वभवेऽभेदरत्नत्रयभावनया संसारस्थिति स्तोकां कृत्वा पश्चान्मोक्षं गताः । तद्भवे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो नास्ति । एवमुक्तप्रकारेण अल्पश्रुतेनापि ध्यानं भवतीति ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यम् - " वधबन्धच्छेदादेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः । १ । संकल्पकल्पतरुसंश्रयणात्त्वदीयं चेतो निमज्जति मनोरथसागरेऽस्मिन् । तत्रार्थतस्तव चकास्ति न किं च नापि पक्षे परं भवति कल्मषसंश्रयस्य । २ । दौविध्यदग्धमनसोऽन्तरुपात्तभुक्तेश्चित्तं यथोल्लसति ते स्फुरितोत्तरङ्गम् । धाम्नि स्फुरेद्यदि तथा परमात्मसंज्ञे कौतस्कुती तव भवेद्विफला प्रसूतिः । ३ । कंखिद कलुसिदभूती कामभोगेहि मुच्छिदो जीवो। ण य भुंजतो भोगे बन्धदि भावेण कम्माणि । ४ ।" इत्याद्यपध्यानं त्यक्त्वा - " मत परिवज्जामि णिममत्तिमुवट्टिदो । आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं वोसरे । १ । आदा क्खु सज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरिते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे । २ । एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सब्बे संजोयलक्खणा । ३ ।" इत्यादिसारपदानि गृहीत्वा च ध्यानं कर्त्तव्यमिति ।
अल्प करके अर्थात् बहुत से कर्मोंकी निर्जरा करके स्वर्ग में जाता है । और वहाँसे मनुष्यभवमें आकर रत्नत्रयकी भावनाको प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्षको चला जाता है और जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचंद्रजी तथा पांडव अर्थात् युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम आदि मोक्षको गये हैं; उन्होंने भी पूर्वभवमें अभेदरत्नत्रयकी भावना से अपने संसारकी स्थितिको घटा ली थी; इस कारण इस भवमें मोक्ष गये । उसी भवमें सबके मोक्ष हो जाता है ऐसा नियम नहीं है । ऐसे कहे हुए प्रकारसे अल्पश्रुतज्ञानसे भी ध्यान होता है। यह जानकर क्या करना चाहिये ? " द्व ेषसे वध ( मारना) बन्ध (बाँधना ) छेद (किसी अंगको काटना) आदिका और रागसे परस्त्री आदिका जो चितवन करना है; उसको जिनमत में निर्मल बुद्धिके धारक आचार्य अपध्यान (बुरा ध्यान) कहते हैं । १ । हे जीव ! संकल्परूपी कल्पवृक्षका आश्रय करनेसे तेरा चित्त इस मनोरथ सागरमें डूब जाता है; और उस संकल्परूपी कल्पवृक्षका आश्रय करनेमें यद्यपि इष्टपदार्थका अनुभव होता है परन्तु परमार्थसे तुझको कुछ भी नहीं भासता है; केवल निश्चयसे तू पापका भागी होता है । २ । निर्धनतासे दग्ध है मन जिसका ऐसा और संकल्पसे ग्रहण किया है भोजन जिसने ऐसा तेरा उत्कट मनोरथोंका धारक चित्त जैसे भोजनको लेनेके लिये प्रवृत्त होता है; वैसे ही यदि तू परमात्मा नामके धारक तेज में वा स्थानमें चित्तको करे तो तेरा जन्म कैसे निष्फल हो अर्थात् तेरा जन्म लेना सफल हो जावे । ३ । कषायों से मलीन हुआ और कामभोगों में मूच्छित हुआ यह जीव कामभोगोंकी इच्छा करता है, और भोगोंको भोगता नहीं है तो भी भावोंसे कर्मोंको बाँधता है । ४ ।" इत्यादि रूप जो दुर्ध्यान है उसको छोड़कर और “निर्ममत्त्व में स्थित होकर परपदार्थोंमें जो ममकार (मेरी) वुद्धि है उसका मैं त्याग करता हूँ; और मेरे आत्मा ही आलंबन (ध्यानका आधार ) है; अन्य सबको में त्यागता हूँ किंवा भूलता हूँ । १ । मेरे आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही संवरका कारण है और आत्मा ही योग है । २ । मेरा ज्ञान-दर्शनरूप लक्षणका धारक एक आत्मा ही अविनाशी है, और बाकी सब संयोगरूप लक्षणके धारक बाह्यभाव हैं उनका वियोग अवश्य होगा | ३ |" इत्यादि सारभूत पदों को ग्रहण करके ध्यान करना चाहिये ।
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