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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १८५ अथ मोक्षविषये पुनरपि नयविचारः कथ्यते। तथाहि मोक्षस्तावत् बन्धपूर्वकः ॥ तथाचोक्तं"मुक्तश्चेत् प्राकभवेद्बन्धो नो बन्धो मोचनं कथम् । अबन्धे मोचनं नैव मुञ्चेरों निरर्थकः । १।" बन्धश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति। तथा बन्धपूर्वको मोक्षोऽपि । यदि पुनः शुद्धनिश्चयेन बन्धो भवति तदा सर्वदैव बन्ध एव मोक्षो नास्ति । किञ्च-यथा शृङ्खलाबद्धपुरुषस्य बन्धच्छेदकारणभावमोक्षस्थानीयं बन्धच्छेदकारणभूतं 'पौरुष' पुरुषस्वरूपं न भवति, तथैव शृङ्खलापुरुषयोर्यद्रव्यमोक्षस्थानीयं पृथक्करणं तदपि पुरुषस्वरूपं न भवति । किन्तु ताभ्यां भिन्नं यदृष्टं हस्तपादादिरूपं तदेव पुरुषस्वरूपम् । तथैव शुद्धोपयोगलक्षणं भावमोक्षस्वरूपं शुद्धनिश्चयेन जीवस्वरूपं न भवति, तथैव तेन साध्यं यज्जीवकर्मप्रदेशयोः पृथक्करणं द्रव्यमोक्षरूपं तदपि जीवस्वभावो न भवति । किन्तु ताभ्यां भिन्नं यदनन्तज्ञानादिगुणस्वभावं फलभूतं तदेव शुद्धजीवस्वरूपमिति । अयमत्रार्थः-यथा विवक्षितैक देशशुद्धनिश्चयेन पूर्व मोक्षमार्गों व्याख्यातस्तथा पर्यायमोक्षरूपो मोक्षोऽपि। न च शद्धनिश्चयनयेनेति । यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूपः शुद्ध पारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्षः स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानों भविष्यतीत्येवं न। स एव रागादिविकल्परहिते मोक्षकारणभते ध्यानभावनापर्याये ध्येयो भवति । न च ध्यानभावनापर्यायरूपः। यदि पुनरे ___ अब मोक्षके विषयमें फिर भी नयोंके विचारका कथन करते हैं। सो ही दिखलाते हैं कि, मोक्ष जो है वह बन्धपूर्वक है अर्थात् जिसके पहले बंध होता है उसीके मोक्ष होता है । सो ही कहा है कि, 'यदि यह जीव मुक्त है तो पहले इस जीवके बंध अवश्य होना चाहिये। यदि कहो कि जीवके पहले बन्ध नहीं था तो जीवके मोचन (छूटना) कैसे हुआ ? क्योंकि विना बंधे हुए जीवके मोचन नहीं हो सकता। इसलिये बंधको नहीं प्राप्त हुए जीवके माननेमें मुश्च धातुका जो छूटनेरूप अर्थ है वह व्यर्थ होता है ॥' भावार्थ-जैसे कोई पुरुष पहले बंधा हुआ हो और फिर छूटे तब वह मुक्त कहलाता है । इसीप्रकार जो जीव पहले कर्मोंसे बँधा हुआ होता है उसीका मोक्ष होता है। और यह बन्ध शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे नहीं है। तथा बन्धपूर्वक मोक्ष भी शुद्धनिश्चयनयसे नहीं है । और यदि शुद्ध-निश्चयनयसे बन्ध होवे तो सदा ही इस आत्माके बन्ध रहे, मोक्ष होवे ही नहीं। जैसे शृंखला (सांकल वा जंजीर) से बँधे हुए पुरुषके, बंधके नाशका कारणभूत जो भावमोक्ष है उसके स्थानवाला जो शृंखलाके बंधको छेदनेका कारणभूत पौरुष ( उद्यम ) है वह पुरुषका स्वरूप नहीं है । और इसी प्रकार द्रव्यमोक्षके स्थान में प्राप्त ( एवजमें आया हुआ) जो शृङ्खला और पुरुष इन दोनोंका जुदा करना है वह भी पुरुषका स्वरूप नहीं है; किंतु उन पौरुष और पृथक्करणसे जुदा जो देखा हुआ हस्त पाद आदि रूप आकार है; वही पुरुषका स्वरूप है। उसीप्रकार शुद्धोपयोगलक्षण जो भावमोक्षका स्वरूप है; वह शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे जीवका स्वरूप नहीं है। और उसी प्रकार उस भावमोक्षसे साध्य जो जीव और कर्मके प्रदेशोंको जुदा करने रूप द्रव्यमोक्षका स्वरूप है; वह भी जीवका स्वभाव नहीं है। किन्तु उन भावमोक्ष और द्रव्यमोक्षसे भिन्न जो फलभूत ज्ञान आदि गुणरूप स्वभाव है; वही शुद्ध जीवका स्वरूप है। यहाँ पर भावार्थ यह है कि, जैसे विवक्षित-एकदेशशुद्धनिश्चयनयसे पहिले मोक्षमार्गका व्याख्यान किया है; उसीप्रकार पर्यायमोक्षरूप जो मोक्ष है उसका कथन भी विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनयसे ही जानना चाहिये, और शुद्धनिश्चयनयसे नहीं। और जो शुद्ध-द्रव्यकी शक्तिरूप शुद्धपारिणामिक परमभावरूप लक्षणका धारक परमनिश्चयमोक्ष है वह तो जीवमें पहले ही विद्यमान है। वह परमनिश्चयमोक्ष जीवमें अब होगा ऐसा नहीं है । तथा राग आदि विकल्पोंसे रहित १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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