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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १८१ अयं तु विशेषः - व्यवहाररूपाणि यानि प्रसिद्धान्येकदेशव्रतानि तानि त्यक्तानि । यानि पुनः सर्वशुभाशुभनिवृत्तिरूपाणि निश्चयव्रतानि तानि त्रिगुप्तिलक्षणस्वशुद्धात्मसम्वित्तिरूपनिर्विकल्पध्याने स्वीकृतान्येव न च त्यक्तानि । प्रसिद्धमहाव्रतानि कथमेक देशरूपाणि जातानि । इति चेत्तदुच्यते - जीवघातनिवृत्तौ सत्यामपि जीवरक्षणे प्रवृत्तिरस्ति । तथैवासत्यवचन परिहारेऽपि सत्यवचनप्रवृत्तिरस्ति । तथैव चादत्तादान परिहारेऽपि दत्तादाने प्रवृत्तिरस्तीत्याद्येकदेश प्रवृत्त्यपेक्षया देशव्रतानि । तेषामेकदेशव्रतानां त्रिगुप्तिलक्षणनिर्विकल्पसमाधिकाले त्यागः । न च समस्तशुभाशुभनिवृत्तिलक्षणस्य निश्चयव्रतस्येति । त्यागः कोऽर्थः । यथैव हिंसादिरूपाव्रतेषु निवृत्तिस्तथैकदेशव्रतेष्वपि । कस्मादिति चेत् — त्रिगुप्तावस्थायां प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपविकल्पस्य स्वयमेवावकाशो नास्ति । अथवा वस्तुतस्तदेव निश्चयव्रतम् । कस्मात् - सर्वनिवृत्तित्वादिति । योऽपि घटिकाद्वयेन मोक्षं गतो भरतश्चक्री सोsपि जिनदीक्षां गृहीत्वा विषयकषायनिवृत्तिरूपं क्षणमात्रं व्रतपरिणामं कृत्वा पश्चाच्छुद्धोपयोगत्वरूप रत्नत्रयात्मके निश्चयव्रताभिधाने वीतराग सामायिकसंज्ञे निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा केवलज्ञानं लब्धवानिति । परं किन्तु तस्य स्तोककालत्वाल्लोका व्रतपरिणामं न जानन्तीति । तदेव भरतस्य दीक्षाविधानं कथ्यते । हे भगवन् जिनदीक्षादानानन्तरं भरतचक्रिणः कियति काले केवल इस पूर्वकथन में विशेष यह है कि, मन वचन और कायकी गुप्तिरूप और निज शुद्ध आत्माके ज्ञानस्वरूप जो निर्विकल्पध्यान है उसमें व्यवहाररूप जो प्रसिद्ध एकदेशव्रत हैं उनका त्याग किया है और जो संपूर्ण शुभ तथा अशुभको निवृत्तिरूप निश्चयव्रत है उनका स्वीकार ही किया गया है और त्याग नहीं किया गया है। प्रसिद्ध जो अहिंसादि महाव्रत हैं वे एकदेशरूप कैसे हो गये ? ऐसी शंका करो तो समाधानरूप उत्तर यह है कि, अहिंसा महाव्रतमें यद्यपि जीवोंके घात ( मारने) से निवृत्ति ( रहितता) है; तथापि जीवोंकी रक्षा करनेमें प्रवृत्ति है । इसी प्रकार सत्य महाव्रत में यद्यपि असत्य वचनका त्याग है, तो भी सत्यवचन में प्रवृत्ति है । और अचौर्यमहाव्रत में यद्यपि नहीं दिये हुए पदार्थके ग्रहण करनेका त्याग है, तो भी दिये हुए पदार्थ के ग्रहण करने में प्रवृत्ति है । इत्यादि एकदेशप्रवृत्तिकी अपेक्षासे ये पाँचों महाव्रत देशव्रत है । इन एकदेशरूप व्रतोंका मन, वचन और कायकी गुप्ति स्वरूप जो विकल्परहित ध्यान है उसके समय में त्याग है । और समस्त शुभ तथा अशुभकी निवृत्तिरूप जो निश्चयव्रत है उसका त्याग नहीं है । प्रश्न- त्याग इस शब्दका क्या अर्थ है ? उत्तर - जैसे हिंसा आदि रूप पाँच अव्रतों में रहितपना है उसी प्रकार जो अहिंसा आदि पंचमहाव्रतरूप एकदेश व्रत हैं उनमें रहितपना है यही यहाँ त्याग शब्दका अर्थ है । इन एकदेशव्रतोंका त्याग किस कारणसे होता है ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि, मन वचन और काय इन तीनों की गुप्तिरूप जो अवस्था है; उसमें प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप जो विकल्प है; उसका स्वयं ही अवकाश नहीं है, अर्थात् मन, वचन और कायकी गुप्तिरूप ध्यान में कोई प्रकारका भी विकल्प नहीं होता और अहिंसादि महाव्रत विकल्परूप हैं इसलिये वे त्रिगुप्तिरूप ध्यान में नहीं रह सकते हैं । और जो दीक्षाके पश्चात् दो घटिका (घडी) प्रमाणकाल में ही श्रीभरतचक्रवर्ती मोक्ष पधारे हैं उन्होंने भी जिनदीक्षाको ग्रहण करके, क्षणमात्र ( थोड़े समयतक ) विषय और कषायोंकी रहिततारूप जो व्रतका परिणाम है उसको करके तत्पश्चात् शुद्धोपयोगरूप जो रत्नत्रय उस स्वरूप जो निश्चयव्रत नामका धारक और वीतरागसामायिक नामका धारक निर्विकल्प ध्यान है उसमें स्थित होकर केवलज्ञानको प्राप्त हुए हैं । परन्तु श्रीभरतजीके जो थोड़े समय व्रतपरिणाम रहा इस कारण लोग श्रीभरतजीके व्रतपरिणामको नहीं जानते हैं । अब उसी श्रीभरतजीकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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