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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १७९ अतः परं यद्यपि पूर्व बहुधा भणितं ध्यातृपुरुषलक्षणं ध्यानसामग्री च तथापि चूलिकोपसंहाररूपेण पुनरप्याख्यातिः - तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा | तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह ॥ ५७ ॥ तपः श्रुतव्रतवान् चेता ध्यानरथधुरन्धरः भवति यस्मात् । तस्मात् तत्त्रिकनिरताः तल्लब्ध्यै सदा भवत ॥ ५७ ॥ व्याख्या- - 'तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा' तपश्रुतव्रतवानात्मा चेतयिता ध्यानरथस्य धुरन्धरो समर्था भवति 'जम्हा' यस्मात् 'तम्हा तत्तियणिरदा तलद्धीए सवा होह' तस्मात् कारणात् तपश्रुतव्रतानां संबन्धेन यत्त्रितयं तत् त्रितये रता सर्वकाले भवत हे भव्याः ! किमर्थं ? तस्य ध्यानस्य लब्धिस्तल्लब्धिस्तदर्थमिति । तथाहि अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासन कायक्लेशभेदेन बाह्यं षड्विधं तथैव प्रायश्चित्तविनयवैय्यावृत्यस्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानभेदेनाऽभ्यन्तरमपि षड्विधं चेति द्वादशविधं तपः । तेनैव साध्यं शुद्धात्मस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्च । तथैवाचाराराधनादिद्रव्यश्रुतं तदाधारेणोत्पन्नं निर्विकार जो निश्चयमोक्षमार्ग है उसको कहनेवाले अन्य भी बहुतसे जीवपर्यायी नाम परमात्मतत्त्वको अर्थात् परमात्मा के स्वरूपको जाननेवाले जो भव्य जीव हैं उनको जान लेने चाहिये ॥ ५६ ॥ अब इसके आगे यद्यपि पहिले ध्यान करनेवाले पुरुषका लक्षण और ध्यानकी सामग्रीका कई प्रकार से वर्णन कर चुके हैं; तो भी चूलिका और उपसंहाररूपसे फिर भी ध्याता पुरुष और ध्यानसामग्रीका कथन करते हैं; गाथाभावार्थ- क्योंकि, तप, श्रुत और व्रतका धारक जो आत्मा है वही ध्यानरूपी रथकी धुराको धारण करनेवाला होता है। इस कारण हे भव्यजनो ! तुम उस ध्यानकी प्राप्तिके अर्थ निरन्तर तप, श्रुत और व्रत इन तीनोंमें तत्पर होवो || ५७|| Jain Education International व्याख्यार्थ - " तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा" जिस कारणसे कि तप, श्रुत और व्रतका धारक आत्मा ध्यानरूपी रथकी धुराको धारण करनेके लिये समर्थ होता है । " तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह" इस कारणसे हे भव्यो ! उस ध्यानकी प्राप्तिके अर्थ तप श्रुत और व्रतोंके सम्बन्धसे जो त्रितय है उस त्रितयमें अर्थात् तपः श्रुत तथा व्रत इन तीनोंके समुदाय में सर्वकाल ( निरन्तर ) तत्पर होवो । अब इसीका विशेष वर्णन करते हैं कि -अनशन (उपवासका करना) १, अवमोदर्य (कम भोजन करना) २, वृत्तिपरिसंख्यान ( अटपटी वृत्तिको ग्रहण करके भोजन करने जाना) ३, रसपरित्याग (छः रसोंमेंसे एक दो आदि रसोंका त्याग करना) ४, विविक्तशय्यासन (निर्जन और शुद्ध स्थल में शयन करना वा बैठना ) ५, कायक्लेश ( शक्तिके अनुसार शरीर से परिश्रम लेना ) ६, इन भेदोंसे छः प्रकारका बाह्य तप और इसी प्रकार प्रायश्चित्त १, विनय २, वैयावृत्य ३, स्वाध्याय ४, कायोत्सर्ग ५, और ध्यान ६, इन भेदोंसे छः प्रकारका अन्तरंग तप ऐसे बाह्य तथा अभ्यन्तर दोनों तपोंके भेदोंको मिलानेसे बारह प्रकारका व्यवहारतप है । और उसी व्यवहारतपसे सिद्ध होने योग्य निज शुद्ध आत्माके स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजय करने रूप निश्चयतप है । इसी प्रकार मूलाचार, भगवती आराधना आदि द्रव्यश्रुत, तथा उन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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