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________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ३७ परमात्मनो भिन्ना रागादयो दोषाः शुद्धचैतन्यलक्षण आत्मन्युक्तलक्षणेषु चित्तदोषात्मसु त्रिषु वीतरागसर्वज्ञप्रणोतेषु अन्येषु वा पदार्थेषु यस्य परस्परसापेक्षनयविभागेन श्रद्धानं ज्ञानं च नास्ति स बहिरात्मा, तस्माद्विसदृशोऽन्तरात्मेति रूपेण बहिरात्मान्तरात्मनोर्लक्षणं ज्ञातव्यम्। परमात्मलक्षणं कथ्यते--सकलविमलकेवलज्ञानेन येन कारणेन समस्तं लोकालोकं जानाति व्याप्नोति तेन कारणेन विष्णुर्भण्यते । परमब्रह्मसंज्ञनिजशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नसुखामृततृप्तस्य सत उर्वशीरम्भातिलोत्तमाभिर्देवकन्याभिरपि यस्य ब्रह्मचर्यव्रतं न खण्डितं स परमब्रह्म भण्यते । केवलज्ञानादिगुणैश्वर्ययुक्तस्य सतो देवेन्द्रादयोऽपि तत्पदाभिलाषिणः सन्तो यस्याज्ञां कुर्वन्ति स ईश्वराभिधानो भवति । केवलज्ञानशब्दवाच्यं गतं ज्ञानं यस्य स सुगतः, अथवा शोभनमविनश्वरं मुक्तिपदं गतः सुगतः । "शिवं परमकल्याणं निर्वाणं ज्ञानमक्षयम् । प्राप्तं मुक्तिपदं येन स शिवः परकीर्तितः । १।" इति श्लोककथितलक्षणः शिवः । कामक्रोधादिदोषजयेनानन्तज्ञानादिगुणसहितो जिनः । इत्यादिपरमागमकथिताष्टोत्तरसहस्र संख्यनामवाच्यः परमात्मा ज्ञातव्यः । एवमेतेषु त्रिविधात्मसु मध्ये मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण तिष्ठति, अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च । अभव्यजीवे पुनर्बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव न च भाविनैगमनयेनेति । यद्यभव्यजीवे परमात्मा शक्तिरूपेण वर्तते तर्हि कथमभव्यत्वमिति चेत् इस वहिरात्मासे विरुद्ध अर्थात् निजशुद्ध आत्माको ही आत्मा जाननेवाला अन्तरात्मा है । अथवा हेय तथा उपादेयका विचार करनेवाला जो चित्त तथा निर्दोष परमात्मासे भिन्न राग आदि दोष और शुद्ध चैतन्यरूप लक्षणका धारक आत्मा ऐसे इन पूर्वोक्त लक्षणोंके धारक जो चित्त, दोष और आत्मा हैं इन तीनोंमें अथवा वीतराग सर्वज्ञकथित अन्य पदार्थों में जिसके परस्पर अपेक्षाके धारक नयोंके विभागसे श्रद्धान और ज्ञान नहीं है वह बहिरात्मा है और उस बहिरात्मासे भिन्न लक्षणका धारक अन्तरात्मा है, इस प्रकार बहिरात्मा और अन्तरात्माका लक्षण जानना चाहिये । अब परमात्माका लक्षण कहते हैं--सम्पूर्ण तथा निर्मल ऐसे केवलज्ञान द्वारा जिस कारणसे समस्त लोक अलोकको जानता है अर्थात् व्याप्त होता है, इस हेतुसे वह परमात्मा विष्णु कहलाता है । परमब्रह्म नामक निजशुद्ध आत्माकी भावनासे उत्पन्न सुखामृतसे तृप्त होनेसे उर्वशी, तिलोत्तमा तथा रंभा आदि देवकन्याओंने भी जिसके ब्रह्मचर्य व्रतको खण्डित न किया वह परम ब्रह्म कहलाता है। केवल ज्ञान आदि गुणरूप ऐश्वर्य युक्त होनेसे जिसके पदकी अभिलाषा ( चाह ) करते हुए देवोंके इन्द्र आदि भी जिसकी आज्ञाका पालन करते है, इसलिये वह परमात्मा ईश्वर इस नामका धारक होता है । केवल ज्ञान इस शब्दसे वाच्य ( कहने योग्य ) है सु ( उत्तम ) गत ( ज्ञान ) जिसका वह सुगत है । अथवा सु कहिये शोभायमान अविनश्वर (नाशरहित) मुक्तिके स्थानको जो प्राप्त हुआ सो सुगत है। तथा “शिव कहिये परम कल्याणरूप निर्वाण और अक्षयज्ञानरूप मुक्तिपदको जिसने प्राप्त किया वह शिव कहलाता है। १।' इस श्लोकमें कहे हुए लक्षणका धारक होनेसे वह परमात्मा शिव है। काम, क्रोध आदि दोषोंको जीतनेसे अनन्त ज्ञान आदि गुणोंका धारक जिन कहलाता है; इत्यादि परमागममें कहे हुए एक हजार आठ नामोंसे वाच्य (कहने योग्य) जो है उसको परमात्मा जानना चाहिये । इस प्रकार इन पूर्वोक्त तीनों आत्माओंके मध्य में जो मिथ्यादृष्टि भव्य जीव है उसमें बहिरात्मा तो व्यक्तिरूपसे रहता है और अन्तरात्गा तथा परमात्मा ये दोनों शक्ति रूपसे ही रहते हैं। और भावी नैगमनयकी अपेक्षासे व्यक्तिरूपसे भी रहते हैं। और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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