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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[प्रथम अधिकार
रण्डबीजवदग्निशिखावच्चेति.दृष्टान्तचतुष्टयेन च स्वमावोर्ध्वगमनं ज्ञातव्यं तच्च लोकाग्रपर्यन्तमेव न च परतो धर्मास्तिकायाभावादिति । नित्या इति विशेषणं तु मुक्तात्मनां कल्पशतप्रमितकाले गते जगति शून्ये जाते सति पुनरागमनं भवतीति सदाशिववादिनो वदन्ति तनिषेधार्थ विज्ञेयम् । उत्पादव्ययसंयुक्तत्वं विशेषणं सर्वथैवापरिणामित्वनिषेधार्थमिति। किञ्च विशेषः निश्चलाविनश्वरशुद्धात्मस्वरूपाद्भिन्नं सिद्धानां नारकादिगतिषु भ्रमणं नास्ति कथमुत्पादव्ययत्वमिति । तत्र परिहारः। आगमकथितागरुलघुषट्स्थानपतितहानिद्धिरूपेण येऽर्थपर्यायास्तदपेक्षया अथवा येन येनोत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण प्रतिक्षणं ज्ञेयपदार्थाः परिणमन्ति तत्परिच्छित्त्याकारणानीहितवृत्त्या सिद्धज्ञानमपि परिणमति तेन कारणेनोत्पादध्ययत्वम, अथवा व्यञ्जनपर्यायापेक्षया संसारपर्यायविनाशः, सिद्धपर्यायोत्पादः, शुद्धजीवद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति । एवं नयविभागेन नवाधिकारैर्जीवद्रव्यं ज्ञातव्यम्, अथवा तदेव बहिरात्मान्तरात्मपरमात्मभेदेन त्रिधा भवति । तद्यथास्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवास्तवसुखात्प्रतिपक्षभूतेनेन्द्रियसुखेनासक्तो बहिरात्मा, तद्विलक्षणोऽन्तरात्मा। अथवा देहरहितनिजशुद्धात्मद्रव्यभावनालक्षणभेदज्ञानरहितत्वेन देहादिपरद्रव्येष्वेकत्वभावनापरिणतो बहिरात्मा, तस्मात्प्रतिपक्षभूतोऽन्तरात्मा। अथवा हेयोपादेय विचारकचित्तनिर्दोष
अथवा भ्रमते हुए कुलाल (कुंभकार) के चाकके सदृश, मृत्तिकाके लेपरहित तुंबीके सदृश, एरंडके बीजके तुल्य, अथवा अग्निकी शिखाके समान, इन चार दृष्टांतोंसे जीवके स्वभावसे ऊर्ध्वगमन जानना चाहिये और वह ऊर्ध्वगमन भी लोकके अग्रभाग तक ही होता है और इसके आगे नहीं; क्योंकि, वहाँ धर्मास्तिकायका अभाव है। सिद्ध नित्य हैं। यहाँपर जो नित्य विशेषण है सो सदाशिववादी यह कहते हैं कि “१०० कल्पप्रमाण समय व्यतीत होनेपर जब जगत् शून्य हो जाता है तब फिर उन मुक्त जीवोंका संसारमें आगमन होता है। इस मतका निषेध करनेके लिये है ऐसा समझना चाहिये । सिद्ध उत्पाद तथा व्ययसे युक्त हैं यहाँ जो उत्पाद व्यय संयुक्तपना सिद्धोंका विशेषण कहा है वह सर्वथा अपरिणामिताके निषेधके लिये है। यहाँपर विशेष यह है कि कोई शंका करे कि सिद्ध तो निरन्तर निश्चल तथा विनाशरहित जो शुद्ध आत्माका स्वरूप है उसीमें रमते हैं, उससे भिन्न जो नरक आदि गतियोंमें भ्रमण करना है वह सिद्धोंके नहीं है इसलिये सिद्धोंमें उत्पाद तथा व्यय कैसे मानते हो? इस शंकाका परिहार यह है कि आगममें कहे हुए जो अगुरुलघु आदि षट् स्थानोंमें पड़े हुए हानिवृद्धि स्वरूपसे अर्थ पर्याय हैं उनकी अपेक्षासे उत्पाद व्यय है । अथवा जिस-जिस उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूपसे प्रतिसमय ज्ञेय पदार्थ परिणमते हैं उन उनकी परिच्छित्तिके आकारसे निरिच्छक (इच्छारहित) वृत्तिसे सिद्धोंका ज्ञान भी परिणमता है इस कारणसे उत्पाद व्यय है। अथवा सिद्धोंमें व्यंजन पर्यायकी अपेक्षासे संसार पर्यायका नाश, सिद्ध पर्यायका उत्पाद तथा शुद्ध जीव द्रव्यपनेसे ध्रौव्य हैं। ऐसे नय विभागसे नौ अधिकारों द्वारा जीवद्रव्यका स्वरूप जानना चाहिये । अथवा वही जीवात्मा बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा इन भेदोंसे तीन प्रकारका होता है। वह इस प्रकार है-निजशुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न जो पारमार्थिक ( यथार्थ ) सुख उससे विरुद्ध जो इन्द्रियसुख उससे आसक्त बहिरात्मा है, उससे विलक्षण अन्तरात्मा है। अथवा देहरहित जो निजशुद्ध आत्मारूप द्रव्य उस आत्मद्रव्यकी भावनारूप जो भेदज्ञान है उससे रहित होनेके कारण देह आदि पर ( अन्य ) द्रव्योंमें जो एकत्व भावनासे परिणत है अर्थात् देह आदिमें यह भावना करता है कि देह आदि मैं ही हूँ वह बहिरात्मा है। और
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