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षद्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ]
बृहद्रव्य संग्रहः
तथा कालद्रव्यमपि परेषां परिणति सहकारिकारणं स्वस्यापि । अथ मतं यथा कालद्रव्यं स्वस्योपादानकारणं परिणतेः सहकारिकारणं च भवति तथा सर्वद्रव्याणि कालद्रव्येण किं प्रयोजनमिति । नैवम् । यदि पृथग्भूतसहकारिकारणेन प्रयोजनं नास्ति तहि सर्वद्रव्याणां साधारणगतिस्थित्यवगाहन विषये धर्माधर्माकाद्रव्यैरपि सहकारिकारणभूतैः प्रयोजनं नास्ति । किञ्च कालस्य घटिकादिवसादि
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प्रत्यक्षेण दृश्यते धर्मादीनां पुनरागमकथनमेव प्रत्यक्षेण किमपि कार्यं न दृश्यते । ततस्तेषामपि कालद्रव्यस्येवाभावः प्राप्नोति । ततश्च जीवपुद् गलद्रव्यद्वयमेव । स चागमविरोधः । किञ्च सर्वद्रव्याणां परिणति सहकारित्वं कालस्यैव गुण:, घ्राणेन्द्रियस्य रसास्वादनमिवान्यद्रव्यस्य गुणोऽन्यद्रव्यस्य कर्त्तुं नायाति द्रव्यसंकरदोषप्रसंगादिति । कश्चिदाह - यावत्कालेनैकाकाशप्रदेशं परमाणुरतिक्रामति ततस्तावत्कालेन समयो भवतीत्युक्तमागमे एकसमयेन चतुर्दशरज्जुगमने यावंत आकाशप्रदेशास्तावन्तः समया प्राप्नुवन्ति । परिहारमाह - एकाकाशप्रदेशातिक्रमेण यत्समयव्याख्यानं कृतं तन्मन्दगत्यपेक्षपा, यत्पुनरेकसमये चतुर्दशरज्जुगमनव्याख्यानं तत्पुनः शीघ्रगत्य
सहकारी कारण है वैसे ही कालद्रव्यके परिणमनमें सहकारी कारण कौन है ? उत्तर - जैसे आकाश द्रव्य संपूर्ण द्रव्योंका आधार है और अपना आधार भी आप ही है, इसी प्रकार काल द्रव्य भी अन्य सब द्रव्योंके परिणमन में और अपने परिणमन में भी सहकारी कारण है । अब कदाचित् कहो कि जैसे कालद्रव्य अपना तो उपादान कारण है और परिणमनका सहकारी कारण है, वैसे ही जीव आदि सब द्रव्यों को अपने उपादान कारण और परिणतिके सहकारी कारण मानो । उन जीव आदिके परिणमनमें कालद्रव्यसे क्या प्रयोजन है ? समाधान - ऐसा नहीं । क्योंकि, यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारणसे प्रयोजन नहीं है तो सब द्रव्यों में साधारण रूप (समानता ) से विद्यमान जो गति, स्थिति, तथा अवगाहन हैं उनके विषय में सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म तथा आकाश द्रव्य हैं उनसे भी कोई प्रयोजन नहीं है । और भी, कालका तो घंटिका ( घड़ी ) दिन आदि कार्य प्रत्यक्षसे दीख पड़ता है और धर्म द्रव्य आदिका कार्य तो केवल आगम ( शास्त्र ) के कथन से ही माना जाता है; उनका कोई कार्य प्रत्यक्षसे नहीं दीख पड़ता । इसलिये, जैसे कालद्रव्यका अभाव मानते हो उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म तथा आकाश द्रव्योंका भी अभाव अवश्य प्राप्त होता है । और जब इन काल आदि चारोंका अभाव मान लोगे तो जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे । और दो द्रव्योंके माननेपर आगमसे विरोध होगा । और सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी होना यह केवल काल द्रव्यका ही गुण है । जैसे घ्राण इन्द्रिय ( नासिका ) से रसका आस्वाद नहीं हो सकता, ऐसे ही अन्य द्रव्यका गुण भी अन्य द्रव्यके करने में नहीं आता । क्योंकि, ऐसा माननेसे द्रव्यसंकर दोषका प्रसंग होगा ( अर्थात् अन्य द्रव्यका लक्षण अन्य द्रव्य में चला जायगा, जो कि सर्वथा अनुचित है ) । अब यहाँ कोई कहता है कि जितने कालमें एक आकाश के प्रदेशको परमाणु अतिक्रम करता है अर्थात् एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेश में गमन करता है उतने कालका नाम समय होता है यह शास्त्र में कहा है। और इस हिसाब से चौदह रज्जु गमन करनेमें जितने आकाशके प्रदेश हैं उतने समय ही लगने चाहिये; परन्तु शास्त्र में यह भी कहा है कि पुद्गलपरमाणु एक समय में चौदह रज्जुपर्यन्त गमन करता है सो यह कथन कैसे संभव हो सकता है ? इसका खंडन कहते हैं कि आगममें जो परमाणुका एक समय में एक आकाशके प्रदेश में गमन करना कहा है सो तो मन्द गमनकी अपेक्षासे है । और जो परमाणुका एक समय में चौदह रज्जुका
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