SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार पेक्षया । तेन कारणेन चतुर्दशरज्जुगमनेऽप्येकसमयः । तत्र दृष्टान्तः-कोऽपि देवदत्तो योजनशतं मन्दगत्या दिनशतेन गच्छति । स एव विद्याप्रभावेण शीघ्रगत्या दिनेनैकेनापि गच्छति तत्र कि दिनशतं भवति । किन्त्वेक एव दिवसः। तथा चतुर्दशरज्जुगमनेऽपि शीघ्रगमनेनैक एव समयः । किञ्च स्वयं विषयानुभवरहितोऽप्ययं जीवः परकीयविषयानुभवं दृष्टं श्रुतं च मनसि स्मृत्वा यद्विषयाभिलाषं करोति तदपध्यानं भण्यते तत्प्रभृतिसमस्तविकल्पजालरहितं स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसहजानन्दैकलक्षणसुखरसास्वादसहितं यत्तद्वीतरागचारित्रं भवति । यत्पुनस्तदविनाभूतं तन्निश्चयसम्यक्त्वं चेति भण्यते । तदेव कालत्रयेऽपि मुक्तिकारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति ततः स हेय इति । तथा चोक्तं "कि पल्लविएण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिद्धिहंहि जेवि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥" इदमत्र तात्पर्य-कालद्रव्यमन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं परं किन्तु वीतरागसर्वज्ञवचनं प्रमाणमिति मनसि निश्चित्य विवादो न कर्तव्यः । कस्मादिति चेत्-विवादे रागद्वेषौ भवतस्ततश्च संसारवृद्धिरिति ॥२२॥ एवं कालद्रव्यव्याख्यानमुख्यतया पंचमस्थले सूत्रद्वयम् गतम् । इत्यष्टगाथासमुदायेन पञ्चभिः स्थलैरजीवद्रव्यव्याख्यानेन द्वितीयान्तराधिकारः समाप्तः। गमन कहा है वह शीघ्र गमनकी अपेक्षासे है। इस कारण परमाणुको शीघ्रगतिसे चौदह रज्जुप्रमाण गमन करने में भी एक ही समय लगता है । इस विषयमें दृष्टान्त यह है कि जैसे जो देवदत मन्द गमन (धीरी चाल) से सौ योजन सौ दिनमें जाता है, वही देवदत्त विद्याके प्रभावसे शीघ्र गमन आदि करके सौ योजन एक दिनमें भी जाता है तो क्या उस देवदत्तको शीघ्रगतिसे सो योजन गमन करनेमें सौ दिन लगेंगे ? किन्तु एक ही दिन लगेगा । इसी प्रकार शीघ्र गतिसे चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणुको एक ही समय लगता है। और भी यहाँ विशेष जानने योग्य है कि, यह जीव स्वयं ( निज स्वभावसे ) विषयोंके अनुभवसे रहित है तथापि अन्यके देखे हुए अथवा सुने हुए विषयके अनुभवको मनमें स्मरण करके जो विषयोंकी इच्छा करता है उसको अपध्यान ( बुरा ध्यान ) कहते हैं। उस विषयकी अभिलाषाको आदि ले, संपूर्ण विकल्पोंका जो समूह है उससे रहित और आत्मज्ञानसे उत्पन्न स्वाभाविक आनंदरूप सुखके रसके आस्वादसे सहित जो है वह वीतरागचारित्र है । और जो उस वीतराग चारित्रसे व्याप्त है वह निश्चयसम्यक्त्व तथा वीतरागसम्यक्त्व कहलाता है। वह निश्चयसम्यक्त्व ही भूत, भविष्यत्, वर्तमान इन तीनों कालोंमें मुक्तिका कारण है । और काल तो उस निश्चयसम्यक्त्वके अभावमें सहकारी कारण भी नहीं होता है, इस कारण वह कालद्रव्य हेय ( त्याग करने योग्य ) है । सो ही कहा है कि "बहुत कथनसे क्या प्रयोजन है ? जो श्रेष्ठ मनुष्य भूतकालमें सिद्ध हुए हैं तथा भविष्यमें होंगे. वह सब सम्यक्त्वका माहात्म्य है" | अब यहाँ तात्पर्य यह है कि कालद्रव्यके तथा अन्य द्रव्योंके विषयमें जो कुछ विचारना हो वह सब परम आगमके अविरोधसे ही विचारना चाहिये और "वीतराग सर्वज्ञका वचन प्रमाण है" ऐसा मनमें निश्चय करके उनके कथनमें विवाद नहीं करना चाहिये। क्योंकि, विवादमें राग तथा द्वेष उत्पन्न होते हैं और उन रागद्वेषोंसे संसारकी वृद्धि होती है ।। २२॥ ऐसे कालद्रव्यके व्याख्यानकी मुख्यतासे पंचम स्थल में दो सूत्र समाप्त हुए। और उक्त रीतिसे आठ गाथाओंके समुदायसे पांच स्थलोंसे पुद्गल आदि पांच प्रकारके अजीव द्रव्यके निरूपणरूपसे दूसरा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy