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________________ ५० श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार व्याख्या-"लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हु इक्किक्का" लोकाकाशप्रदेशेष्वेकैकेषु ये स्थिता एकैकसंख्योपेता "हु" स्फुटं । क इव ? "रयणाणं रासी इव" परस्परतादात्म्यपरिहारेण रत्नानां राशिरिव । "ते कालाणू" ते कालाणवः। कति संख्योपेताः ? "असंखदव्वाणि" लोकाकाशप्रमितासंख्येयद्रव्याणीति । तथाहि-यथाङ्गलिद्रव्यस्य यस्मिन्नेव क्षणे वनपर्यायोत्पत्तिस्तस्मिन्नेव क्षणे पूर्वप्राञ्जलपर्यायविनाशोऽङ्गलिरूपेण ध्रौव्यमिति द्रव्यसिद्धिः। यथैव च केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपेण कार्यसमयसारस्योत्पादों निर्विकल्पसमाधिरूपकारणसमयसारस्य विनाशस्तदुभयाधारपरमात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति वा द्रव्यसिद्धिः। तथा कालाणोरपि मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुना व्यक्तीकृतस्य कालाण पादानकारणोत्पन्नस्य य एव वर्तमानसमयस्योत्पादः स एवातीतसमयापेक्षया विनाशस्तदुभयाधारकालाणुद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमित्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मककालद्रव्यसिद्धिः । लोकबहिर्भागे कालाणुद्रव्याभावात्कथमाकाशद्रव्यस्य परिणतिरिति चेत्, अखण्डद्रव्यत्वादेकदेशदण्डाहतकुम्भकारचक्रभ्रमणवत्, तथैवैकदेशमनोहरस्पर्शनेन्द्रियविषयानुभवसर्वाङ्गसुखवत्, लोकमध्यस्थितकालाणुद्रव्यधारणैकदेशेनापि सर्वत्र परिणमनं भवतीति कालद्रव्यं शेषद्रव्याणां परिणतेः सहकारिकारणं भवति । कालद्रव्यस्य किं सहकारिकारणमिति । यथाकाशद्रव्याणामाधारः स्वस्यापि, होकर एक एक स्थित हैं वे कालाणु हैं और असंख्यात द्रव्य हैं ।।२२।। व्याख्यार्थ-'लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया ह इक्किक्का" लोकाकाशके एक-एक प्रदेश में जो एक एक संख्यायुक्त स्पष्टरूपसे स्थित हैं। किसकी तरह ? "रयणाणं रासी इव" परस्पर तादात्म्यरहित रत्नोंकी राशिके सदृश अर्थात् रत्नराशिकी भाँति भिन्न-भिन्न स्थित हैं। "ते कालाणू" वे कालाणु हैं। कितनी संख्याके धारक हैं ? "असंखदव्वाणि' लोकाकाशपरिमाण असंख्यात द्रव्य हैं। अब द्रव्यसिद्धिमें प्रमाण कहते हैं। जैसे जिस क्षणमें अंगुलिरूप द्रव्यके वक्र ( बांके ) पर्यायकी उत्पत्ति होती है उसी क्षणमें उसके सरल पर्यायका नाश होता है और अंगुलीरूपसे उस अंगुलीमें ध्रौव्य है। इस रीतिसे उत्पत्ति, नाश तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणोंसे युक्त होनेसे द्रव्यसिद्धि हो गई । और भी जैसे केवलज्ञान आदिकी व्यक्ति (प्रकटता) रूपसे कार्य-समयसारका अर्थात् केवलज्ञानादि रूपसे परिणत आत्माका उत्पाद होता है उसी समय निर्विकल्प ध्यानरूप जो कारण समयसार है उसका नाश होता है और उन दोनोंका आधारभूत जो परमात्मद्रव्य है उस रूपसे ध्रौव्य है, इस रीतिसे भी द्रव्यकी सिद्धि है। उसी प्रकार कालाणुके भी जो मन्द गतिमें परिणत पुद्गलपरमाणु द्वारा प्रकट किये हुए और कालाणुरूप उपादानकारणसे उत्पन्न हुए ऐसे वर्तमान समयका उत्पाद है वही अतीत (गये हुए) समयकी अपेक्षा उसका विनाश है और उन वर्तमान तथा अतीत दोनों समयोंका आधारभूत कालद्रव्यपनेसे ध्रौव्य है। ऐसे उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप लक्षणके धारक कालद्रव्यकी सिद्धि है । शंका-"लोकके बाह्य भागमें कालाणु द्रव्यके अभावसे अलोकाकाशमें परिणाम कैसे हो सकता है ?" यदि ऐसा कहो तो उत्तर यह है कि आकाश अखंड द्रव्य है इसीलिये जैसे चाकके एक देशमें विद्यमान दंडकी प्रेरणासे संपूर्ण कुम्भकारके चाकका परिभ्रमण हो जाता है, उस तरहसे अथवा जैसे एक देश में प्रिय ऐसे स्पर्शन इन्द्रियके विषयका अनुभव करनेसे समस्त शरीरमें सुखका अनुभव होता है उस प्रकार लोकके मध्य में स्थित जो कालाणुद्रव्यको धारण करनेवाला एकदेश आकाश है, उससे भी सर्व आकाशमें परिणमन होता है । शंका--जैसे कालद्रव्य, जीव, पुद्गल आदि द्रव्योंके परिणमनमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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