________________
षद्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ]
बृहद्रव्यसंग्रहः
स्निग्धरूक्षादिस्पर्श-मधुरादिरसविशेषरूपा गुणा दृश्यन्ते । तथा पुद्गलपरमाणुनयनपुटविघटनजलभाजनपुरुषव्यापारादिदिनकरबिम्बरूपैः पुद्गलपर्यायैरुपादानभूतैः समुत्पन्नानां समयनिमिषघटिकादिकालपर्यायाणामपि शुक्लकृष्णादिगुणाः प्राप्नुवन्ति न च तथा। उपादानकारणसदृशं कार्यमिति वचनात् । कि बहुना। योऽसावनाद्यनिधनस्तथैवामूतॊ नित्यः समयाय पादानकारणभूतोऽपि समयादिविकल्परहितः कालाणुद्रव्यरूपः स निश्चयकालो, यस्तु सादिसान्तसमयघटिकाप्रहरादिविवक्षितव्यवहारविकल्परूपस्तस्यैव द्रव्यकालस्य पर्यायभूतो व्यवहारकाल इति । अयमत्र भावःयद्यपि काललब्धिवशेनानन्तसुखभाजनो भवति जीवस्तथापि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वस्य सम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानसमस्तबहिब्रव्येच्छानिवृत्तिलक्षणतपश्चरणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न च कालस्तेन स हेय इति ॥२१॥ अथ निश्चयकालस्यावस्थानक्षेत्रं द्रव्यगणनां च प्रतिपादयति
लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हु इक्किक्का । रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ २२ ॥ लोकाकाशप्रदेशे एकैकस्मिन् ये स्थिताः हि एकैकाः। रत्नानां राशिः इव ते कालाणवः असंख्यद्रव्याणि ।। २२॥
-
-
उपादानकारणसे उत्पन्न जो ओदन ( भात ) पर्याय है उसके निज उपादानकारणमें प्राप्त गुणोंके समान ही शुक्ल, कृष्ण आदि वर्ण, अच्छी वा बुरी गन्ध, चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श, मधुर आदि रस, इत्यादि विशेष गुण दीख पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गलपरमाणु, नयनपुटविघटन, जलभाजन, पुरुषव्यापार आदि तथा सूर्यका बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय हैं उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घटिका, दिन आदि जो कालपर्याय हैं उनको भी शुक्ल, कृष्ण आदि गुण प्राप्त होते हैं, परन्तु समय घटिका आदिमें उपादानकारणोंके कोई गुण नहीं दीख पड़ते। क्योंकि, उपादानकारणके समान कार्य होता है ऐसा वचन है । अब यहाँ अधिक कहना व्यर्थ है । जो आदि तथा अन्तसे रहित है, अमूर्त है, नित्य है, समय आदिका उपादानकारणभूत है तो भी समय आदि भेदोंसे रहित है, और कालाणद्रव्यरूप है वह तो निश्चयकाल है, और जो आदि तथा अन्तसे सहित है, समय, घटिका तथा प्रहर आदि विवक्षित व्यवहारके विकल्पोंसे युक्त है, वह उसी द्रव्यकालका पर्यायभूत व्यवहारकाल है । यहाँ तात्पर्य यह है कि यद्यपि यह जीव काललब्धिके वशसे अनन्त सुखका भाजन ( पात्र ) होता है, तथापि विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावका धारक जो निज परमात्माका स्वरूप है उसके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और सम्पूर्ण बाह्य द्रव्योंकी इच्छाको दूर करनेरूप लक्षणका धारक तपश्चरणरूप ऐसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तपरूप जो निश्चयसे चार प्रकारकी आराधना है वह आराधना ही उस जीवके अनन्त सुखकी प्राप्तिमें उपादानकारण है ऐसा जानना चाहिये । और काल उपादानकारण नहीं है, इसलिये वह काल हेय ( त्याज्य ) है ॥ २१ ॥
अब निश्चयकालकी स्थितिका क्षेत्र तथा कालद्रव्यको संख्याका प्रतिपादन करते हैं;गाथाभावार्थ-जो लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर रत्नोंकी राशिके समान परस्पर भिन्न
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org