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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथम अधिकार
कालाध्ययने अग्निवत्, पदार्थपरिणतेर्यत्सहकारित्वं सा वर्त्तना भव्यते । सैव लक्षणं यस्य स वर्त्तनालक्षण: कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकालः इति व्यवहारकालस्वरूपं निश्चयकालस्वरूपं च विज्ञेयम् । कश्चिदाह "समरूप एव निश्चयकालस्तस्मादन्यः कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकालो नास्त्यदर्शनात् ।" तत्रोत्तरं दीयते - समयस्तावत्कालस्तस्यैव पर्यायः । स कथं पर्यायः इति चेत्, पर्यायस्योत्पन्नप्रध्वंसित्वात् । तथा चोक्तं "समओ उप्पण्ण पद्धंसी" स च पर्यायो द्रव्यं विना न भवति, पश्चात्तस्य समयरूपपर्याय कालस्योपादानकारणभूतं द्रव्यं तेनापि कालरूपेण भाव्यम् । इन्धनाग्निसहकारिकारणोत्पन्नस्यौदनपर्यायस्य तन्दुलोपादानकारणवत्, अथ कुम्भकारचक्रचोवरादिबहिरङ्गनिमित्तोत्पन्नस्य मृन्मयघटपर्यायस्य मृत्पिण्डोपादानकारणवत्, अथवा नरनारकादिपर्यायस्य जीवोपादानकारणवदिति । तदपि कस्मादुपादानकारणसदृशं कार्यं भवतीति वचनात् । अथ मतं "समयादिकालपर्यायाणां कालद्रव्य मुपादानकारणं न भवति; किन्तु समयोत्पत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुट विघटनं तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्तौ घटिकासामग्रीभूतजलभाजन पुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकरबिम्बमुपादानकारणमिति । नैवम् । यथा तन्दुलोपादानकारणोत्पन्नस्य सदोदनपर्यायस्य शुक्लकृष्णादिवर्णा, सुरभ्यसुरभिगन्धस्वयं ही परिणमनको प्राप्त होते हुए पदार्थोंके जैसे कुम्भकारके चक्र (चाक) के भ्रमण में उसके नीचे की कीली सहकारिणी है उस प्रकार, अथवा शीतकालमें छात्रोंके अध्ययनमें अग्नि सहकारी है उस प्रकार जो पदार्थ परिणति में सहकारिता है उसीको वर्त्तना कहते हैं; और वह वर्त्तना ही है लक्षण जिसका सो वर्त्तना लक्षणका धारक कालाणुद्रव्यरूप निश्चयकाल है । इस प्रकार व्यवहारकालका तथा निश्चयकालका स्वरूप जानना चाहिये । यहाँ कोई कहता है कि समयरूप ही निश्चयकाल है । उस समयसे भिन्न कालाणुद्रव्यरूप कोई निश्चयकाल नहीं है । क्योंकि, देखने में नहीं आता || अब इसका उत्तर देते हैं कि समय जो है सो तो कालका हो पर्याय है । कदाचित् कहो कि समय कालका पर्याय कैसे है ? तो उत्तर यह है कि पर्याय जो है सो "समओ उप्पण्णपद्धसी" इस आगमोक्त वाक्यके अनुसार उत्पन्न होता है और नाशको प्राप्त होता है और वह पर्याय द्रव्यके विना नहीं होता और फिर यदि समयको ही काल मान लो तो उस समय रूप पर्याय कालका उपादानकारणभूत जो द्रव्य है उसको भी कालरूप ही होना चाहिये। क्योंकि जैसे ईंधन अग्नि आदि सहकारी कारणसे उत्पन्न ओदन पर्याय ( पके चावल) का उपादानकारण चावल ही होता है; अथवा कुम्भकार, चाक, चीवर आदि बहिरंग निमित्तकारणोंसे उत्पन्न जो मृत्तिकादिरूप घटपर्याय है उसका उपादानकारण मृत्तिकाका पिण्ड ही है; वा नर नारक आदि जो जीवके पर्याय हैं उनका उपादानकारण जीव ही है; ऐसे ही समय घटिका आदि रूप कालका भी उपादानकारण काल ही होना चाहिये। यह नियम भी क्यों माना गया है कि "अपने उपादानकारणके समान ही कार्य होता है" ऐसा वचन है । अब कदाचित् तुम्हारा ऐसा मत हो कि "समय, घटिका आदि कालपर्यायोंका उपादानकारण कालद्रव्य नहीं है किन्तु समयरूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में मन्दगति में परिणत पुद्गलपरमाणु उपादानकारण है, तथा निमेषरूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में नेत्रोंके पुटोंका विघटन अर्थात् पलकका गिरना उठना उपादानकारण है, ऐसे ही घटिका रूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में घटिकाकी सामग्रीरूप जो जलका भाजन और पुरुषके हस्त आदिका व्यापार है वह उपादानकारण है और दिनरूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में सूर्यका बिम्ब उपादानकारण होता है इत्यादि । सो यह मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, जैसे तन्दुल (चावल) रूप
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