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________________ १७२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार पृथकपरिच्छेदनं सम्यक्ज्ञानं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयज्ञानाचारः । तत्रैव रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखास्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचारः। समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधेन तथैवानशनादिद्वादशतपश्चरणबहिरङ्गसहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्चरणं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयतपश्चरणाचारः । तस्यैव निश्चयचतुर्विधाचारस्य रक्षणार्थं स्वशक्त्यनवगृहनं निश्चयवीर्याचारः । इत्युक्तलक्षणनिश्चयपश्चाचारे तथैव "छत्तीसगुणसमग्गे पंचविहाचारकरणसन्दरिसे। सिस्साणुग्गहकुसले धम्मायरिए सदा वंदे । १ ।'' इति गाथाकथितक्रमेणाचाराराधनादिचरणशास्त्रविस्तीर्णबहिरङ्गसहकारिकारणभूते व्यवहारपञ्चाचारे च स्वं परं च योजयत्यनुष्ठानेन सम्बन्धं करोति स आचार्यो भवति । स च पदस्थध्याने ध्यातव्यः । इत्याचार्यपरमेष्ठिव्याख्यानेन सूत्रं गतम् ॥५२॥ अथ स्वशद्धात्मनि शोभनमध्यायोऽभ्यासो निश्चयस्वाध्यायस्तल्लक्षणनिश्चयध्यानस्य पारम्पर्येण कारणभूतं भेदाभेवरत्नत्रयादितत्त्वोपदेशकं परमोपाध्यायभक्तिरूपं णमो उवज्झायाणं' इति पदोच्चारणलक्षणं यत् पदध्यानं, तस्य ध्येयभूतमुपाध्यायमुनीश्वरं कथयति दर्शनाचार कहते हैं । १। उसी शुद्ध आत्माका जो उपाधि रहित स्वसंवेदन (अपने जानने) रूप भेदज्ञानद्वारा मिथ्यात्व-राग आदि परभावोंसे भिन्न जानना है वह सम्यग्ज्ञान है। उसमें जो आचरण (परिणमन) करना अर्थात् लगना है वह निश्चयज्ञानाचार है । २। उसी शुद्ध आत्मामें राग आदि विकल्पोंरूप उपाधिसे रहित जो स्वभावसे उत्पन्न हुआ सुख है उसके आस्वादसे निश्चल चित्तका करना है उसको वीतरागचारित्र कहते हैं; उसमें जो आचरण करना है वह निश्चयचारित्राकार कहलाता है । ३ । समस्त परद्रव्योंमें इच्छाके रोकनेसे, इसी प्रकार अनशन अवमौदर्य आदि बारह प्रकारके तपको करने रूप बहिरंगसहकारीकारणसे जो निज स्वरूपमें प्रतपन अर्थात् विजयन है वह निश्चयतपश्चरण कहलाता है; उसमें जो आचरण अर्थात परिणमन है उसको निश्चयतपश्चरणाचार कहते हैं । ४ । इन पूर्वोक्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणरूप भेदोंसे चार प्रकारका जो निश्चय आचार है; उसकी रक्षाके लिये जो अपनी शक्ति (ताकत) का नहीं छिपाना है वह निश्चयवीर्याचार है । ५। ऐसे कहे हुए लक्षणोंका धारक जो निश्चयनयसे पाँच प्रकारका आचार हे उसमें, और इसी प्रकारसे "छत्तीसगुणोंसे सहित, पाँच प्रकारके आचारको करनेका उपदेश देनेवाले, तथा शिष्योंपर अनुग्रह (कृपा) रखने में चतुर ऐसे जो धर्माचार्य हैं उनको मैं सदा वंदना करता हूँ। १ ।' इस गाथामें कहे हुए क्रमके अनुसार मूलाचार, भगवती आराधना आदि चरणानुयोगके शास्त्रोंमें विस्तारसे कहे हुए बहिरंगसहकारीकारणों रूप जो व्यवहारनयसे पाँच प्रकारका आचार है उसमें जो अपनेको तथा परको लगाते हैं अर्थात् आप उस पंचाचारको साधते हैं और दूसरोंको सधाते हैं वे आचार्य कहलाते हैं। और वे आचार्य परमेष्ठी पदस्थध्यानमें ध्यान करने योग्य हैं ।। इसप्रकार आचार्यपरमेष्ठीके व्याख्यानसे यह गाथासूत्र समाप्त हुआ ।। ५२ ॥ - अब निज शुद्ध आत्मामें जो उत्तम अभ्यास करना है उसको निश्चय स्वाध्याय कहते हैं । उस निश्चयस्वाध्यायरूप स्वरूपका धारक जो निश्चयध्यान है उसके परंपरासे कारणभूत, भेद अभेद रूप रत्नत्रय आदि तत्त्वोंका उपदेश करनेवाले और परमउपाध्यायभक्तिस्वरूप “णमो उवज्झायाणं" इस पदके उच्चारणरूप पदस्थध्यानके ध्येयभूत (ध्यान करने योग्य) ऐसे जो उपाध्याय परमेष्ठी हैं उनके स्वरूपका कथन करते हैंFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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