SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन बृहद्रव्य संग्रहः ११३ उत्कृष्टायुःप्रमाणं ज्ञातव्यम्। तदायुः सौधर्मादिषु स्वर्गेषु यदुत्कृष्टं तत्परस्मिन् परस्मिन् स्वर्गे सर्वार्थसिद्धि विहाय जघन्यं चेति । शेषं विशेषव्याख्यानं त्रिलोकसारादौ बोद्धव्यम् ॥ किञ्च आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुद्धकस्वभावे परमात्मनि सकलविमलकेवलज्ञानलोचनेनादर्श बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्था लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकनं वा स निश्चयलोकः। "सण्णाओ य तिलेस्सा इंदिय वसदाय अझरुद्दाणि । णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होति ।।" इति गाथोदितविभावपरिणाममादि कृत्वा समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्पत्यागेन निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमालादैकसुखामृतरसास्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा । शेषा पुनर्व्यवहारेणेत्येवं संक्षेपेण लोकानुप्रेक्षाव्याख्यानं समाप्तम् ।। अथ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षां कथयति । तथाहि एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनुष्यदेशकुलरूपेन्द्रियपटुत्वनिाध्यायुष्कवरबुद्धिसद्धर्मश्रवणग्रहणधारणश्रद्धानसंयमविषयसुखव्यावर्तनक्रोधादिकषायनिवर्त्तनेषु परं परं दुर्लभेषु कथंचित्काकतालीयन्यायेन लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिदुर्लभः। कस्मादिति पंचानुत्तर पटलमें तेतीस सागर जितना उत्कृष्ट आयुका प्रमाण जानना चाहिये। और जो आयु सौधर्म आदि स्वर्गों में उत्कृष्ट है वह सर्वार्थसिद्धिके बिना अन्य सब स्वर्गों में आगे-आगे जघन्य है अर्थात् जो सौधर्म ईशान स्वर्गमें उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर प्रमाण आयु है वह सनत्कुमार माहेन्द्रमें जघन्य है। इस क्रमसे सर्वार्थसिद्धिके पहले-पहले जघन्य आयु जानना। इसके अतिरिक्त जो अधिक व्याख्यान है सो त्रिलोकसार आदिमेंसे समझना चाहिये ।। __ और आदि मध्य तथा अन्तसे रहित, शुद्ध बुद्ध एक स्वभावका धारक जो परमात्मा है उसमें सकल (पूर्ण)रूपसे विमल ( स्वच्छ ) जो केवल ज्ञान नामक नेत्र है उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बोंका भान होता है उसी प्रकार शुद्ध आत्मा आदि पदार्थ आलोके जाते हैं अर्थात् देखे जाते हैं, जाने जाते हैं, परिच्छिन्न किये जाते हैं इस कारण वह निज शुद्ध आत्मा ही निश्चय लोक है अथवा उस निश्चय लोक नामके धारक निज-शुद्ध परमात्मामें जो अवलोकन ( देखना ) है वह निश्चय लोक है । "संज्ञा, तीन लेश्या, इन्द्रियोंके वशीभूतपना, आर्त, रौद्र ध्यान तथा दुष्प्रयुक्त ज्ञान और मोह ये सब पापको देनेवाले होते हैं।' इस गाथामें कहे हुए विभावपरिणामको आदि लेकर, सम्पूर्ण जो शुभ तथा अशुभरूप संकल्पविकल्प हैं उनके त्यागसे और निजशुद्ध आत्माकी भावनासे उत्पन्न जो परम आह्लादरूप एक सुखरूपी अमृतके आस्वादका अनुभव है उससे जो भावना होती है वही निश्चयसे लोकानुप्रेक्षा है। और इसके अतिरिक्त शेष जो पूर्वोक्त भावना है वह व्यवहारसे है । इसप्रकार संक्षेपसे लोकानुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त हुआ | अब बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं। सो इस प्रकार है-एकेन्द्रिय, विकलेंद्रिय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य, देश, कुल, रूप, इंद्रियों में पटुता, नीरोग, आयु, उत्तम बुद्धि, उत्तम धर्मका सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, श्रद्धान करना, संयम, विषयसुखोंसे रहित होना, क्रोध आदि कषायोंका दूर होना ये; जो पूर्वोक्त सब हैं. इनमें पूर्व-पूर्व की अपेक्षा पर-पर अर्थात् एकेन्द्रियताकी अपेक्षा विकलेन्द्रियता आदि दुर्लभ हैं। यदि कथंचित् काकतालीय न्यायसे इन सबकी प्राप्ति हो जाय तो भी इन सबकी प्राप्तिरूप जो ज्ञान है उसमें फलभूत जो निजशुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy