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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार चेत्तत्प्रतिबन्धकमिथ्यात्व विषयकषायनिदानबन्धादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति । तस्मात्स एव निरन्तरं भावनीयः । तद्भावनारहितानां पुनरपि संसारे पतनमिति । तथा चोक्तम् - "इत्यतिदुर्लभरूपां बोधि लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् । संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् ॥१॥" पुनश्चोक्तं मनुष्य भवदुर्लभत्वम् - "अशुभ परिणामबहुलता लोकस्य विपुलता महामहती । योनिवि - पुलता च कुरुते सुदुर्लभां मानुषों योनिम् । १।" बोधिसमाधिलक्षणं कथ्यते - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति । एवं संक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ ११४ अथ धर्मानुप्रेक्षां कथयति । तद्यथा - संसारे पतन्तं जीवमुद्धृत्य नागेन्द्र नरेन्द्रदेवेन्द्रादिवन्द्ये अव्याबाधानन्तसुखाद्यनन्तगुणलक्षणे मोक्षपदे धरतीति धर्मः । तस्य च भेदाः कथ्यन्तेअहिंसालक्षणः सागारानगारलक्षणो वा 'उत्तमक्षमादिलक्षणो वा निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मको वा शुद्धात्मसंवित्यात्मकमोहक्षोभरहितात्मपरिणामो वा धर्मः । अस्य धर्मस्यालाभेऽतीतानन्तकाले " णिच्चिदरधाउसत्तय तरुदस वियर्लेदियोसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो चउदस मणुयेसु आत्मा के ज्ञानस्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानरूप परमसमाधि है वह दुर्लभ है । परमसमाधि दुर्लभ क्यों है ऐसी शंका करो तो समाधान यह है कि - परम समाधि को रोकनेवाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबंध आदि जो विभाव परिणाम हैं उनकी जीवके प्रबलता है इसलिये परम समाधिका होना दुर्लभ है । इस कारण उस परम समाधिकी दुर्लभताकी ही निरंतर भावना करनी चाहिये। क्योंकि, जो जीव उसकी भावना नहीं करते उनका फिर भी संसार में पतन होता है । सो ही कहा है- “कि जो मनुष्य अत्यन्त दुर्लभरूप बोधिको प्राप्त होकर, प्रमादी होता है वह वराक ( दीनजीव ) संसाररूपी भयंकर वनमें चिरकाल तक भ्रमण करता है । १ ।” और पुनः मनुष्यभवकी दुर्लभता के विषय में कहा है- " अशुभ परिणामोंकी अधिकता, संसारकी विशालता, और बड़ी-बड़ी योनियोंकी अधिकता ये सब मनुष्ययोनिको दुर्लभ करती हैं; अर्थात् जीवों के अशुभ परिणाम बहुत हैं, तीनों लोकों में उनके लिये स्थान बहुत हैं और उत्पन्न होने को नयाँ भी अधिक हैं अतः मनुष्य भवका प्राप्त होना दुर्लभ है । अब बोधि और समाधिका लक्षण कहते हैं । पहले नहीं मिले हुए जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र हैं इनका जो मिलना है वह तो बोधि कहलाती है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकोंको निर्विघ्नतापूर्वक जो अन्य भवमें साथ ले जाना सो समाधि है । ऐसे संक्षेपसे दुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त किया ।। अब धर्मानुप्रेक्षाका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है - संसार में गिरते हुए जीवको उठाकर जो धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, देव, इन्द्र आदिकों के पूज्य पदमें अथवा बाधारहित अनंत सुख आदि अनंत गुणोंरूप लक्षणका धारक जो मोक्षपद है उसमें धरता है वह धर्म है । अब उस धर्म के भेद कहे जाते हैं-अहिंसारूप लक्षणका धारक धर्म है. गृहस्थ और मुनि इन भेदोंवाला धर्म है, अथवा उत्तम क्षमा आदि लक्षणवाला दश प्रकारका धर्म है अथवा निश्चय और व्यवहाररूप रत्नत्रयस्वरूप धर्म है, अथवा शुद्ध आत्माके ज्ञानस्वरूप जो मोह तथा क्षोभरहित आत्माका परिणाम है उसरूप धर्म है । इस धर्मकी प्राप्ति न होनेसे अतीत ( गये हुए ) अनंत कालमें नित्यनिगोद वनस्पति में सात लाख, इतर निगोद वनस्पतिमें सात लाख, पृथ्वीकाय में सात लाख, काय में सात लाख, तेजकाय में सात लाख, वायुकाय में सात लाख, प्रत्येक वनस्पति में दस लाख, बे इन्द्री, जल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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