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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १६९ भवति । तथैव च प्रतिवादिनां प्रत्यसिद्धं सर्वज्ञसद्भावं साधयति तेन कारणेनाकिञ्चित्करोऽपि न भवति । एवम सिद्ध विरुद्धानैकान्तिकाकिञ्चित्कर हेतु दोष रहितत्वात्सर्वज्ञसद्भावं साधयत्येव । इत्युक्तप्रकारेण सर्वज्ञसद्भावे पक्षहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनरूपेण पञ्चाङ्गमनुमानं ज्ञातव्यमिति । कि च यथा लोचनहीन पुरुषस्यादर्शे विद्यमानेऽपि प्रतिबिम्बानां परिज्ञानं न भवति, तथा लोचनस्थानीय सर्वज्ञतागुणरहित पुरुषस्यादर्शस्थानीयवेदशास्त्रे कथितानां प्रतिबिम्बस्थानीयपरमाण्वाद्यनन्तसूक्ष्मपदार्थानां क्वापि काले परिज्ञानं न भवति । तथाचोक्तं " यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥ १ ॥” इति संक्षेपेण सर्वज्ञसिद्धिरत्र बोद्धव्या । एवं पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्याने ध्येयभूतस्य सकलात्मनो जिनभट्टारकस्य व्याख्यानरूपेण गाथा गता ॥ ५० ॥ अथ सिद्धसदृश निजपरमात्मतत्त्वपरमसमरसी भावलक्षणस्य रूपातीतनिश्चयध्यानस्य पारम्पर्येण कारणभूतं मुक्तिगतसिद्धभक्तिरूपं 'णमो सिद्धाणं' इति पदोच्चारणलक्षणं यत्पदस्थं ध्यानं तस्य ध्येयभूतं सिद्धपरमेष्ठिस्वरूपं कथयति ; - eggकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा | पुरिसायारो अप्पा सिद्धो ज्झाएह लोयसिहरत्थो ।। ५१ ।। नष्टाष्टक देहः लोकालोकस्य ज्ञायकः द्रष्टा । पुरुषाकार : आत्मा सिद्धः ध्यायेत लोकशिखरस्थः ॥ ५१ ॥ और चार्वाक हैं, उनके सर्वज्ञके सद्भावको सिद्ध करता है इस कारण अकिंचित्कर भी नहीं है । इस प्रकार से 'अनुमानका विषय होनेसे' यह हेतु वचन है सो असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, चित्ररूप जो हेतु दूषण हैं उनसे रहित है, इस कारण सर्वज्ञके सद्भावको सिद्ध करता हो है । इस उक्त प्रकार से सर्वज्ञके सद्भावमें पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन रूपसे पाँच अंगोंका धारक अनुमान जानना चाहिये ॥ और जैसे नेत्रहीन पुरुषको दर्पण ( शीसे ) के विद्यमान होनेपर भी प्रतिबिम्बोंका ज्ञान नहीं होता है, इसीप्रकार नेत्रोंके स्थानभूत जो सर्वज्ञतारूप गुण है उससे रहित पुरुषको दर्पण के स्थानभूत जो वेदशास्त्र है उसमें कहे हुए जो प्रतिबिंबोंके स्थानभूत परमाणु आदि अनन्त सूक्ष्म पदार्थ हैं उनका किसी भी कालमें ज्ञान नहीं होता है । सो ही कहा है कि - "जिस पुरुषके स्वयंबुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है ? क्योंकि नेत्रोंसे रहित पुरुष के दर्पण क्या उपकार करेगा ? भावार्थ - जैसे नेत्रहीन पुरुषको दर्पणसे कुछ लाभ नहीं इसी प्रकार बुद्धिहीन पुरुषको शास्त्रसे कोई लाभ नहीं है । १ । इस प्रकार यहाँ संक्षेपसे सर्वज्ञकी सिद्धि जानना चाहिये। ऐसे पदस्थ, पिंडस्थ और रूपस्थ इन तीनों ध्यानोंमें ध्येयभूत ( ध्यान करने योग्य) जो सकल आत्मा के धारक श्री जिनेन्द्र भट्टारक हैं, उनके व्याख्यानरूपसे यह गाथा समाप्त हुई ||५० ॥ अब सिद्धोंके समान जो परमात्मस्वरूप है; उसमें परमसमरसीभावको धारण करनेरूप जो रूपातीत नामक निश्चय ध्यान है; उस रूपातीत ध्यानके परंपरासे कारणभूत-मुक्ति में प्राप्त हुए जो सिद्ध परमेष्ठी हैं; उनकी भक्तिरूप - " णमो सिद्धाणं" इस पदके बोलनेरूप लक्षणका धारक जो पदस्थध्यान है, उस पदस्थध्यानके ध्येयभूत जो सिद्धपरमेष्ठी हैं; उनके स्वरूपका कथन करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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