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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार व्याख्या-- -'णट्टट्ठकम्मदेहो' शुभाशुभमनोवचनकाय क्रियारूपस्य द्वैतशब्दाभिधेयकर्मकाण्डस्य निर्मलन समर्थेन स्वशुद्धात्मतत्त्वभावनोत्पन्न रागादिविकल्पोपाधिरहित परमाह्लादैकलक्षणसुन्दरमनोहरानन्दस्यं दिनिःक्रियाद्वैतशब्दवाच्येन परमज्ञानकाण्डेन विनाशितज्ञानावरणाद्यष्टकमदारिकादिपञ्चदेहत्वात् नष्टाष्टक संदेह: । 'लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा' पूर्वोक्तज्ञानकाण्डभावनाफलभूतेन सकल विमल केवलज्ञानदर्शनद्वयेन लोकालोकगतत्रिकालवत्तसमस्तवस्तुसम्बन्धिविशेषसामान्यस्वभावानामेकसमयज्ञायकदर्शकत्वात् लोकालोकस्य ज्ञाता द्रष्टा भवति । 'पुरिसायारो' निश्चयनयेनातीन्द्रियामूत्तं परमचिदुच्छलननिर्भरशुद्धस्वभावेन निराकारोऽपि व्यवहारेण भूतपूर्वनयेन किञ्चिदूनचरमशरीराकारेण गत सिक्थमूषागर्भाकारवच्छायाप्रतिमावद्वा पुरुषाकारः । 'अप्पा' इत्युक्तलक्षण आत्मा किं भण्यते ? 'सिद्धो' अञ्जनसिद्धपादुकासिद्ध गुटिकासिद्धखड्गसिद्ध माया सिद्धादि लौकिक सिद्धविलक्षणः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिलक्षणः सिद्धो भण्यते । 'ज्झाएह लोयसिहरत्थो' तमित्थंभूतं सिद्धपरमेष्ठिनं लोकशिखरस्थं दृष्टश्रुतानुभूतपञ्चेन्द्रियभोगप्रभृतिसमस्तमनोरथरूपनानाविकल्पजात्यागेन त्रिगुप्तिलक्षणरूपातीतध्याने स्थित्वा ध्यायत हे भव्या यूयमिति । एवं निष्कलसिंद्ध १७० " गाथाभावार्थ- नष्ट हो गया है अष्टकर्मरूप देह जिसके लोकाकाश तथा अलोकाकाशका जानने देखनेवाला, पुरुषके आकारका धारक और लोकके शिखरपर विराजमान ऐसा जो आत्मा है वह सिद्ध परमेष्ठी है इसकारण तुम उसका ध्यान करो ॥ ५१ ॥ व्याख्यार्थ - ' णट्ठट्ठकम्मदेहो' शुभ-अशुभ- मन वचन और कायकी क्रियारूप, द्वैत इस शब्द कहे जाने योग्य जो कर्मो का कांड (समूह) है उसका नाश करनेमें समर्थ, निजशुद्ध आत्मस्वरूपकी भावनासे उत्पन्न रागादिविकल्परूप उपाधिसे रहित, परम आनंदमय एक लक्षणका धारक, सुन्दर और मनको हरण करनेवाला ऐसा जो आनंद उसको बहानेवाला, क्रियारहित और अद्वैत इस शब्दसे कहे जानेवाला ऐसा जो परमज्ञानकाण्ड, उसके द्वारा नाशको प्राप्त किये है ज्ञानावरणादि आठ कर्म और औदारिक आदि पाँच देह (शरीर ) जिसने ऐसा होनेसे नष्ट किया अष्टकर्म और देह जिसने ऐसा । 'लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा' पहले कहे हुए ज्ञानकांडकी भावना का फलरूप जो सर्व अंशोंमें निर्मल ज्ञान और दर्शनका युगल है उसके द्वारा लोक तथा अलोक में प्राप्त जो भूत भविष्यत् और वर्तमानकाल में रहनेवाले समस्त पदार्थ हैं; उन पदार्थोंसे संबंध रखनेवाले जो विशेष तथा सामान्य भाव हैं उनका एक ही समय में जानने और देखनेवाला होने से लोक तथा अलोकका जानने देखनेवाला होता है । 'पुरिसायारो' निश्चयनयकी अपेक्षासे इन्द्रि योंके अगोचर - मूर्त्तिरहित - परमज्ञानके उछलनेसे भरा हुआ ऐसा जो शुद्ध स्वभाव है उसका धारक होनेसे आकाररहित है; तो भी व्यवहारसे भूतपूर्वनयकी अपेक्षासे अंतिम शरीरसे कुछ न्यून ( कम ) आकारको धारण करता है इस कारण मोमरहित मूसके बीचके आकार की तरह अथवा छाया प्रतिबिंब समान पुरुषके आकारको धारण करनेवाला है । "अप्पा" इन पहले कहे हुए लक्षणोंका धारक जो आत्मा है वह क्या कहलाता है ? 'सिद्धो' अंजनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, खङ्गसिद्ध और मायासिद्ध आदि जो लौकिक ( लोकमें कहे जानेवाले) सिद्ध हैं उन सिद्धोंसे भिन्न लक्षणका धारक-केवल ज्ञान आदि अनंतगुणोंकी प्रकटतारूप लक्षणका धारक सिद्ध कहलाता है । 'ज्झाएह लोयसिहरत्थो' लोकके शिखरपर विराजमान उस पूर्वोक्तलक्षणके धारक सिद्ध परमेठीको हे भव्यजनो ! तुम देखे - सुने - अनुभव किये हुए जो पाँचों इन्द्रियोंके भोगोंको आदिले संपूर्ण www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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