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इस श्लोकके अनुसार दशतालसम' लक्षणोंसे पूर्ण शरीरका धारक और २० धनुष परिमाण ऊँचा श्रीबाहुबलीका प्रतिबिम्ब प्रकट हुआ । राजाने बड़ी भक्तिसे दर्शन किये और विधिपूर्वक १००८ कलशोंसे श्री बाहुबली के मस्तकपर पंचामृताभिषेक किया और पूजन तथा नमस्कार करके धन्य हुआ । फिर वहाँसे दक्षिणमें आकर -
कल्क्यब्दे षट्शताख्ये विनुतविभवसंवत्सरे मासि चैत्रे पञ्चम्यां शुक्लपक्षे दिनमणिदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे । सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटितभगणे सुप्रशस्तां चकार
श्रीमच्चामुण्डराज वेल्लनगरे गोमटेशप्रतिष्ठाम् ॥ बा. ब. च. ५५ ।। इसके अनुसार कल्की ( शक ) के संवत् ६०० (वि. सं. ७३५) में श्रीचामुण्डने चैत्रशुक्ला पंचमी रविवार के दिन श्रवणबेल्गुलनगरमें श्रीगोमटस्वामीकी प्रतिष्ठा की, और भास्वद्देशीगणाग्रेसर सुरुचिरसिद्धान्तविन्नेमिचन्द्र
दत्त्वा
श्रीपादाग्रे सदा षण्णवतिदशशतद्रव्य भूग्रामवर्यान् । श्रीगोमटेशोत्सवसवननिमित्तार्चनावैभवाय
श्रीमच्चामुण्डराजो निजपुरमथुरां संजगाम क्षितीशः ॥ बा. ब. च. ६१ ।
इस श्लोकके अनुसार श्रीचामुण्डने श्रीनेमिचन्द्रस्वामीके चरणोंकी साक्षीपूर्वक छयानवें हजार दीनार ३ (मोहर) के गाँव श्री गोमटस्वामीके उत्सव, अभिषेक व पूजन आदिके निमित्त देकर वहाँ से गमन करके गाजे बाजे सहित अपनी मथुरापुरीमें प्रवेश किया और अपने स्वामी राजमल्लको सब वृत्तान्त कहा । जिसको श्रवणकर महाराजा राजमल्लदेवने भी श्रीनेमिचन्द्रस्वामीके समीप डेढ लाख (१५००००) दीनारोंके गाँव श्रीगोमटस्वामीकी सेवा आदिके निमित्त प्रदान किये । और चामुण्डमंत्रीको धन्य धन्य कहकर जिनमतकी प्रभावनार्थ 'राय' पद दिया । उसी दिनसे चामुण्ड " श्रीचामुण्डराय" इस नामसे आज तक प्रसिद्ध है ॥
इस उक्त कथा परसे निस्सन्देह विदित होता है कि, श्रीनेमिचन्द्रस्वामी नंदिसंघस्थ देशीयगणके मुनीश्वर थे । शक सं. ६०० (वि. सं. ७३५) में द्राविडदेशस्थ मथुरा नगरी किंवा दक्षिणप्रान्तकी भूमिको अपने चरणकमलोंसे पवित्र करते थे । तत्कालीन महाराजा राजमल्लदेव तथा श्रीचामुण्डरायराजाके अतिशय माननीय थे । श्रीसिंहनन्दी और श्रीअजितसेन नामक दो आचार्य भी आपके समकालीन थे । गोमट्टसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार आदि परमादरणीय सिद्धान्तशास्त्रोंके निर्माता भी ये ही श्रीनेमिचन्द्र । इत्यादि, इत्यादि ।
परंतु आजकलके समयमें एक कथासे इतिहाससंबन्धी विषयपर सर्व साधारणको विश्वास नहीं होता है; अतः इस उक्त विषयको सिद्ध करनेके लिये यथाप्राप्त अन्य प्रमाण दे डालना भी हम उचित समझते हैं । वे प्रमाण ये हैं
१. गोमट्टसारशास्त्र के अन्तमें स्वयं श्रीनेमिचन्द्राचार्यने निम्नलिखित गाथायें दी हैं" जम्हि गुणा विस्संता गणहरदेवादिइड्डिपत्ताणं । सो अजियसेणणाहो जस्स गुरू जयउ सो राओ ॥१॥ सिद्धंतुदयतडुग्गयणिम्मलवरणेमिचंदकरकलिया ।
गुणरयण भूसणम्बुहिमइबेला भरहु भुअणतलं ॥२॥
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( १ ) ताल ( हस्त) यह प्रतिमाके निर्माणमें परिमाणविशेषका नाम है । क्योंकि, अन्यमतियोंके सूर्यसिद्धान्तमें 'भवबीजाङ्कुरमथना अष्टमहाप्रातिहार्यविभवसमेताः । ते देवा दशतालाः शेषा देवा भवन्ति नवतालाः ॥ १॥" अर्थात् श्रीजिनेन्द्रकी प्रतिमा दश तालकी होती है और अन्य सब देवोंकी प्रतिमा नौ तालकी होती है, ऐसा लिखा हुआ है । (२) यहाँ कल्की व कलिके संवत्से शकके संवत्को ग्रहण करना चाहिये ।
(३) दीनार यह ३२ रत्तीभर सुवर्णका सिक्का है, ऐसा कोषोंपरसे जान पड़ता है ।
(४) सुनते हैं कि, नेमिचन्द्रसंहिता अथवा नेमिचन्द्रप्रतिष्ठापाठके कर्त्ता भी ये नेमिचन्द्र हैं ।
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