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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार पर्वतद्वयं विज्ञेयम् । तस्मात्पर्वतद्वयाद्दक्षिणभागे कियन्तमध्वानं गत्वा शीतानदीमध्ये अन्तरान्तरेण पद्मादिपञ्चकमस्ति । तेषां हृदानामुभयपार्श्वयोः प्रत्येकं सुवर्णरत्नमयजिनगृहमण्डिता लोकानुयोगव्याख्यानेन दश दश सुवर्णपर्वता भवन्ति । तथैव निश्चयव्यवहार रत्नत्रयाराधकोत्तमपात्रपरमभक्तिदत्ताहारदानफले नोत्पन्नानां तिर्यग्मनुष्याणां स्वशुद्धात्मभावनोत्पन्ननिविकारसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादविलक्षणस्य चक्रवत्तिभोगसुखादप्यधिकस्य विविधपञ्चेन्द्रियभोगसुखस्य प्रदायका ज्योतिर्गृहप्रदीप तूर्य भोजनवस्त्रमाल्यभाजनभूषणरागमदोत्पादकरसाङ्गसंज्ञा दशप्रकार कल्पवृक्षाः भोगभूमिक्षेत्रं व्याप्य तिष्ठन्तीत्यादिपरमागमोक्तप्रकारेणानेकाश्चर्याणि ज्ञातव्यानि । तस्मादेव रुजाद्दक्षिण दिग्विभागेन गजदन्तद्वयमध्ये देवकुरुसंज्ञमुत्तमभोगभूमिक्षेत्रमुत्तरकुरुवद्विज्ञेयम् ॥ ܘܘܨ तस्मादेव मेरुपर्वतात्पूर्वस्यां दिशि पूर्वापरेण द्वाविंशतिसहस्रयोजन विष्कम्भं सवेदिकं भद्रशालवनमस्ति । तस्मात्पूर्वदिग्भागे कर्मभूमिसंज्ञः पूर्वविदेहोऽस्ति । तत्र नीलकुलपर्वताद्दक्षिणभागे शीतानद्या उत्तरभागे मेरोः प्रदक्षिणेन यानि क्षेत्राणि तिष्ठन्ति तेषां विभागः कथ्यते । तथाहिमेरोः पूर्वदिशाभागे या पूर्व भद्रशालवनवेदिका तिष्ठति तस्याः पूर्वदिग्भागे प्रथमं क्षेत्रं भवति, तदनन्तरं दक्षिणोत्तरायतो वक्षारनामा पर्वतो भवति, तदनन्तरं क्षेत्रं तिष्ठति, ततोऽप्यनन्तरं विभङ्गा नदी भवति, ततोऽपि क्षेत्रं, तस्मादपि वक्षारपर्वतस्तिष्ठति, ततश्च क्षेत्रं, ततोऽपि विभङ्गानदी, तदनन्तरं क्षेत्रं, ततः परं वक्षारपर्वतोऽस्ति, तदनन्तरं क्षेत्रं, ततो विभङ्गा नदी, ततश्च क्षेत्रं, पर यमगिरि नामक दो पर्वत जानने चाहिये। उन दोनों यमलगिरि पर्वतोंसे दक्षिण दिशा में कितने ही मार्गके चले जानेपर शीता नदीके बीच-बीच में पद्म आदि पाँच ह्रद हैं । उन हृदों के दोनों पार्श्वो (पसवाड़ों) में से प्रत्येक पार्श्व में लोकानुयोगके व्याख्यानके अनुसार सुवर्ण तथा रत्ननिर्मित ऐसे जिनचैत्यालयोंसे भूषित दश दश सुवर्णपर्वत हैं। इसी प्रकार निश्चय तथा व्यवहाररूप रत्नत्रयकी आराधना करनेवाले जो उत्तम पात्र हैं, उनको परम भक्ति से दिया हुआ जो आहारदान उसके फलसे उत्पन्न ऐसे तिर्यंच और मनुष्योंको निज शुद्ध आत्माकी भावना से उत्पन्न, निर्विकार एवं सदा आनंदरूप सुखामृत रसके आस्वाद से विलक्षण और चक्रवर्तीके जो भोगसुख हैं उनसे भी अधिक ऐसे नानाप्रकारके पंचेन्द्रियों संबन्धी भोगसुखोंको देनेवाले ज्योतिरङ्ग, गृहाङ्ग, प्रदीपांग, तूर्यांग, भोजनांग, वस्त्रांग, माल्यांग, भाजनांग, भूषणांग तथा राग एवं मदको उत्पन्न करनेवाले रसांग इन उक्त नामोंके धारक दश प्रकारके कल्पवृक्ष हैं । वे भोगभूमि क्षेत्रको व्याप्त करके स्थित हैं । इत्यादि परमागमकथित प्रकारसे अनेक आश्चर्य समझने चाहिये । और उसी मेरुगज से निकले हुए दक्षिण दिशा में जो 'दो गजदन्त' हैं उनके मध्य में उत्तर कुरुके समान देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमिका क्षेत्र जानने योग्य है । उसी मेरुपर्वत से पूर्व दिशा में पूर्व पश्चिमको बाईस हजार योजन विष्कंभका धारक वेदीसहित भद्रशाल वन है । उससे पूर्व दिशा में कर्मभूमि संज्ञक पूर्व विदेह है । वहाँ नील नामक कुलाचलसे दक्षिण दिशा में और शीता नदीके उत्तर भाग में मेरुकी प्रदक्षिणा रूप जो क्षेत्र हैं उनके विभागों का कथन करते हैं । सो इस प्रकार है - मेरुसे पूर्वदिशा के भाग में जो पूर्वभद्रशालवनकी वेदिका स्थित है, उससे पूर्व दिशा के भाग में प्रथम क्षेत्र है, उसके पीछे दक्षिण उत्तर लंबा वक्षार नामक पर्वत है, उसके पीछे क्ष ेत्र है, उसके भो आगे विभंगा नामा नदी है, उससे भी आगे क्षेत्र है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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