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________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ९९ कोटि प्रमितावसर्पिणी तथोत्सर्पिणी च यथा भरते वत्तंते तथैवैरावते च । अयन्तु विशेषः, भरतम्लेच्छखण्डेषु विजयार्धनगेषु च चतुर्थकालसमयाद्यन्ततुल्य कालोऽस्ति नापरः । किं बहुना यथा खवाया एकभागे ज्ञाते द्वितीयभागस्तथैव ज्ञायते तथैव जम्बूद्वीपस्थ क्षेत्रपर्वतनदीहदादीनां यदेव दक्षिणविभागे व्याख्यानं तदुत्तरेऽपि विज्ञेयम् । अथ देहममत्वमूलभूतमिथ्यात्व रागादिविभावरहिते केवलज्ञानदर्शनसुखाद्यनन्तगुणसहिते च निजपरमात्मद्रव्ये यया सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभावनया कृत्वा विगतदेहा देहरहिताः सन्तो मुनयः प्राचुर्येण यत्र मोक्षं गच्छन्ति स विदेहो भण्यते । तस्य जम्बूद्वीपस्य मध्यमवत्तनः किमपि विवरणं क्रियते । तद्यथा - नवनवतिसहस्रयोजनोत्सेध एकसहस्रावगाह आंदो भूमितले दशयोजन सहस्रप्रवृत्तविस्तार उपर्युपरि पुनरेकादशांशहानिक्रमेण हीयमानत्वे सति मस्तके योजनसहस्रविस्तार आगमोक्त कृत्रिम चैत्यालयदेववन देवावासाद्यागमकथिताने काश्चर्यसहितो विदेहक्षेत्रमध्ये महामेरुर्नाम पर्वतोऽस्ति । स च गजो जातस्तस्मान्मेरुगजात्सकाशादुत्तरमुखे दन्तद्वयाकारेण यन्निर्गतं पर्वतद्वयं तस्य गजदन्तद्वयसंज्ञेति, तथोत्तरे भागे नीलपर्वते लग्नं तिष्ठति । तयोर्मध्ये यत्त्रिकोणाकारक्षेत्रमुत्तमभोगभूमिरूपं तस्योत्तरकुरुसंज्ञा । तस्य च मध्ये मेरोरीशानदिग्विभागे शोतानीलपर्वतयोर्मध्ये परमागमवणतानाद्य कृत्रिमपार्थिवो जम्बूवृक्षस्तिष्ठति । तस्या एव शीताया उभयतटे यमलगिरिसंज्ञं उत्सेध आदि हैं उनसहित दशकोटाकोटि सागर प्रमाण अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी काल जैसे भरत में है वैसे ही ऐरावत में भी है। और यह विशेष है कि भरतके म्लेच्छखंडों में और विजयार्धं पर्वतों में चतुर्थकालकी आदि तथा अन्तके समान काल है, इस सिवाय दूसरा नहीं । विशेष क्या कहैं -- जैसे खट्वा (खाट) का एक भाग जान लिया जावै तो उसका दूसरा भाग भी उसी प्रकार समझ लिया जाता है; इसी प्रकार जंबूद्वीपके क्षेत्र, नदी, पर्वत और हृद आदिका जो दक्षिणदिशा संबंधी व्याख्यान है वही उत्तरदिशा में भी जानना चाहिये || अब शरीरमें ममत्वके कारणभूत जो मिथ्यात्व तथा राग आदि विभाव हैं उनसे रहित और केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनन्त सुख आदि अनन्त गुणोंसे सहित जो निज परमात्मद्रव्य है, उसमें जिस सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप भावना करके मुनिजन विगतदेह अर्थात् देहरहित होकर अधिकतासे मोक्षको गमन करते हैं उसको विदेह कहते हैं । इसलिये जंबूद्वीप मध्य में वर्तमान जो विदेह क्षेत्र है उसका विस्तारसे वर्णन करते हैं । वह इस प्रकार हैंनिन्यानवे हजार योजन ऊँचा, एक हजार योजन गहरा और प्रथम भूमितल में दशहजार योजन प्रमाण गोल विस्तारका धारक तथा ऊपर ऊपर एकादशांश (ग्यारहवें हिस्से ) हानि क्रमसे घटते घटते होनेपर मस्तक (शिखर) पर एक हजार योजन विस्तारका धारक और शास्त्र में कहे हुए अकृत्रिम चैत्यालय, देव, वन तथा देवोंके स्थान आदि नाना प्रकार के आश्चर्योंसहित ऐसा विदेह क्षेत्र में महामेरुनामक पर्वत है । वही मानों गज (हाथी) हो गया । अतः उस मेरुरूप गंज से उत्तर दिशा में दो दन्तोंके आकारसे जो दो पर्वत निकले हुए हैं, उनकी 'दो गजदन्त' यह संज्ञा है । और वे दोनों उत्तर भाग में जो नील पर्वत है उसमें लगे हुए हैं । उन दोनों गजदन्तोंके मध्यमें जो त्रिकोण आकारवाला ( तिकोना ) उत्तम भोगभूमिरूप क्षेत्र है, उसका 'उत्तरकुरु' यह नाम है । और उसके मध्य में मेरुकी ईशान दिशा में शीता नदी और नील पर्वतके बीच में परमागममें कहा हुआ अनादि, अकृत्रिम तथा पृथ्वीका विकाररूप जंबू वृक्ष है। उसी शीता नदीके दोनों किनारों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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