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________________ Jain Education International ॐ द्रव्यानुयोग परम गम्भीर और सूक्ष्म है, निर्ग्रन्थप्रवचनका रहस्य है, शुक्लध्यानका अनन्य कारण है । शुक्लध्यानसे केवलज्ञान समुत्पन्न होता है। महाभाग्यसे उस द्रव्यानुयोगकी प्राप्ति होती है । दर्शनमोहका अनुभाग घटनेसे अथवा नष्ट होनेसे, विषयके प्रति उदासीनतासे और महत्पुरुषके चरणकमलकी उपासना के बलसे द्रव्यानुयोग परिणत होता है । ज्यों-ज्यों संयम वर्धमान होता है, त्यों-त्यों द्रव्यानुयोग यथार्थ परिणत होता है । संयमकी वृद्धिका कारण सम्यक्दर्शन की निर्मलता है, उसका कारण भी 'द्रव्यानुयोग' होता है । सामान्यतः द्रव्यानुयोगकी योग्यता पाना दुर्लभ है । आत्मारामपरिणामी, परम वीतरागदृष्टिवान्, परम असंग ऐसे महात्मा पुरुष उसके मुख्य पात्र हैं । हे आर्य ! द्रव्यानुयोगका फल सर्व भावसे विराम पानेरूप संयम है । इस पुरुषके इन वचनोंको तू अपने अंतःकरणमें कभी भी शिथिल मत करना । अधिक क्या ? समाधिका रहस्य यही हैं । सर्व दु:खसे मुक्त होनेका अनन्य उपाय यही है । *** *** *** *** यदि मन शंकाशील हो गया हो तो 'द्रव्यानुयोग' विचारना योग्य है; प्रमादी हो गया हो तो 'चरणकरणानुयोग' विचारना योग्य है; और कषायी हो गया हो तो 'धर्मकथानुयोग' विचारना योग्य है; जड हो गया हो तो 'गणितानुयोग' विचारना योग्य है । - श्रीमद् राजचंद्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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