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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य । चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ।। ३५ ।।
व्रतसमितिगुप्तयो धम्र्मानुप्रेक्षाः परीषहजयः च । चारित्रं बहुभेदं ज्ञातव्याः भावसंवरविशेषाः ॥ ३५ ॥
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[ द्वितीय अधिकार
व्याख्या- 'वदसमिदीगुत्तीओ' व्रतसमितिगुप्तयः " धम्माणुपेहा" धर्मस्तथैवानुप्रेक्षाः "परीसहजओ य" परीषहजयश्च "चारित्तं बहुभेया" चारित्रं बहुभेदयुक्तं "णायव्वा भावसंवरविसेसा " एते सर्वे मिलिता भावसंवरविशेषा भेदा ज्ञातव्याः । अथ विस्तरः- निश्चयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्वभावनोत्पन्न सुखसुधास्वा दबलेन समस्तशुभाशुभरागादिविकल्पनिवृत्तिव्रतम्, व्यवहारेण तत्साधकं हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाच्च यावज्जीवनिवृत्तिलक्षणं पञ्चविधं व्रतम् । निश्चयेनानन्तज्ञानादिस्वभावे निजात्मनि सम् सम्यक् समस्तरागादिविभाव परित्यागेन तल्लीनतच्चिन्तनतन्मयत्वेन अयनं गमनं परिणमनं समितिः, व्यवहारेण तद्द्बहिरङ्गसहकारिकारणभूताचारादिचरणग्रन्थोक्ता ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गसंज्ञाः पञ्च समितयः । निश्चयेन सहजशुद्धात्मभावनालक्षणे गूढस्थाने संसारकारणरागादिभयात्स्वस्यात्मनो गोपनं प्रच्छादनं झम्पनं
अब संवरके कारणोंके भेद कहते हैं, यह तो एक भूमिका है और किनसे संवर होता है ? इस प्रश्न में उत्तर देनेवाली दूसरी भूमिका है, इन दोनों पातनिका ( भूमिका) ओंको मनमें धारण करके, भगवान् श्रीनेमिचन्द्रस्वामी इस अग्रिम गाथासूत्रका प्रतिपादन करते हैं;
गाथाभावार्थ- पाँच व्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहोंका जय तथा अनेक प्रकारका चारित्र इस प्रकार ये सब भावसंवरके भेद जानने चाहिये || व्याख्यार्थ - " वदसमिदीगुत्तीओ" व्रत, समिति और गुप्तियाँ, "धम्माणुपेहा" धर्मं तथा अनुप्रेक्षा " परीसहजओ य" और परीषहोंका जीतना "चारितं बहुभेया" अनेक प्रकारका चारित्र " णायव्वा भाव संवरविसेसा" ये सब मिले हुए भावसंवरके भेद जानने चाहिये। अब इस उक्त विषयका विस्तार से वर्णन करते हैं - निश्चयनयसे विशुद्ध ज्ञान और दर्शनरूप स्वभावका धारक जो निज आत्मतत्त्व उसकी भावनासे उत्पन्न जो सुखरूपो अमृत उसके आस्वाद के बलसे सम्पूर्ण शुभ तथा अशुभ राग आदि विकल्पोंसे जो रहित होना सो व्रत है, और व्यवहारसे उस निश्चय व्रतको साधनेवाला हिंसा, अनृत ( झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे जीवनपर्यन्त रहिततारूप लक्षणका धारक पाँच प्रकारका व्रत है । निश्चयनयकी विवक्षासे अनन्तज्ञान आदि स्वभावका धारक जो निज आत्मा है उसमें 'सम् ' भले प्रकार अर्थात् समस्त राग आदि विभावोंके त्याग द्वारा आत्मामें लीन होना, आत्माका ध्यान करना, आत्मरूप होना आदिरूपसे जो अयन कहिये गमन अर्थात् परिणमन सो समिति है । व्यवहारसे उस निश्चय समितिके बहिरंग सहकारी कारणभूत और आचार आदि चारित्र विषयक ग्रन्थोंमें कही हुई ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपणा, और उत्सर्ग इन नामोंकी धारक पाँच समितियाँ हैं । निश्चयसे सहज - शुद्ध - आत्माकी भावनारूप लक्षणके धारक गूढ ( गुप्त ) स्थान में संसारके कारणभूत जो रागादि हैं उनके भयसे अपना आत्माका जो गोपन ( छिपाना ), प्रच्छादन, झंपन, प्रवेशन अथवा रक्षण करना है सो गुप्ति है, व्यवहारसे बहिरंग साधनाके अर्थ जो मन, वचन तथा कायके व्यापारको रोकना है सो गुप्ति
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