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________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थं वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः प्रवेशनं रक्षणं गुप्तिः, व्यवहारेण बहिरङ्गसाधनार्थं मनोवचनकायव्यापारनिरोधो गुप्तिः । निश्चयेन संसारे पतन्तमात्मानं धरतीति विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणनिजशुद्धात्मभावनात्मको धर्मः, व्यवहारेण तत्साधनार्थं देवेन्द्रनरेन्द्रादिवन्द्यपदे धरतीत्युत्तमक्षमामार्दवार्जव सत्य शौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्यलक्षणो दशप्रकारो धर्मः । द्वादशानुप्रेक्षाः कथ्यन्ते - अध्रुवाशरणसंसारैकत्वान्यत्वशुचित्वात्रवसंवर निर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । ताश्च कथ्यन्ते । तद्यथा - द्रव्यार्थिकनयेन टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेनाविनश्वरस्वभावनिजपरमात्मद्रव्यादन्यद् भिन्नं यज्जीव संबन्धे अशुद्धनिश्चयनयेन रागादिविभावरूपं भावकर्म, अनुपचरितासभूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मनो कर्मरूपं च तथैव तत्स्वस्वामिभावसम्बन्धेन गृहीतं यच्चेतनं वनितादिकम्, अचेतनं सुवर्णादिकं तदुभयमिश्रं चेत्युक्तलक्षणं सत्सर्वमध्रुवमिति भावयितव्यम् । तद्भावनासहितपुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति, यादृशविनश्वरमात्मानं भावयति तादृशमेवाक्षयानन्तसुखस्वभावं मुक्तात्मानं प्राप्नोति । इत्यध्रुवानुप्रेक्षा गता ॥१॥ ८१ अथ निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद्बहिरङ्ग-सहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठ्याराधनञ्च शरणम्, तस्माद्बहिर्भूता ये देवेन्द्रचक्रवर्त्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरहै । निश्चयसे संसार में गिरते हुए आत्माको जो धारण करे सो विशुद्ध ज्ञान तथा दर्शन लक्षण निजशुद्ध आत्मा की भावनास्वरूप धर्म है । व्यवहारसे उसके साधनके लिये इन्द्र, चक्रवर्ती आदिका जो वंदने योग्य पद है उसमें धारण करनेवाला उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्यरूप लक्षणका धारक दश प्रकारका धर्म है ॥ तप, त्याग, अब बारह अनुप्रेक्षाओंका कथन करते हैं - अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इनका जो विचार करना है सो अनुप्रेक्षा हैं । उनको कहते हैं । सो ऐसे हैं - द्रव्यार्थिक नयसे टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावपनेसे अविनाशी स्वभावका धारक जो निज परमात्मा द्रव्य है उससे भिन्न जो अशुद्ध निश्चयनय से रागादि विभावरूप भावकर्म और अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारसे द्रव्यकर्म तथा नोकर्मरूप, तथा उसके स्वस्वामिभाव संबंधसे ग्रहण किया हुआ स्त्री आदि चेतनद्रव्य, सुवर्ण आदि अचेतनद्रव्य और चेतन तथा अचेतनसे मिला हुआ मिश्र पदार्थ इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणों सहित जो ये हैं सो सब अध्रुव हैं, इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये। उस भावनासहित जो पुरुष है उसके उनके वियोग होनेपर भी उच्छिष्ट ( जूंठे) भोजनोंके समान ममत्व नहीं होता है । और उनमें ममत्वका अभाव होनेसे अविनाशी निज परमात्माको ही भेद तथा अभेदरूप रत्नत्रयकी भावनासे भावन करता (भाता है और जैसे अविनश्वर आत्माको भाता है, वैसे ही अक्षय - अनन्त सुखरूप स्वभावका धारक जो मुक्त आत्मा है उसको प्राप्त होता है । इस प्रकार अध्रुव भावना पूर्ण हुई || १॥ अब अशरण अनुप्रेक्षाका वर्णन करते है । निश्चयरत्नत्रय में परिणत जो निजशुद्धात्मद्रव्य है सो और उसका बहिरंग सहकारी कारणभूत जो पंचपरमेष्ठियों का आराधन है सो शरण है । उससे बहिर्भूत ( भिन्न ) जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्र आदि चेतन, पर्वत, किला, भूविवर ( भोहरा ), मणि, मन्त्र, आज्ञा, प्रसाद और औषध आदि अचेतन तथा चेतन ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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