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________________ ८२ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् गीय अधिकार मणिमन्त्राज्ञाप्रसादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगहीतमृगबालस्येव महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवन्तीति विज्ञेयम् । तद्विज्ञाय भोगाकाङक्षारूपनिदानबन्धादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसालम्बने स्वशुद्धात्मन्येवावलम्बनं कृत्वा भावनां करोति । यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणागतवज्रपञ्जरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति । इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता ॥२॥ अथ शुद्धात्मद्रव्यादितराणि सपूर्वापूर्वमिश्रपुद्गलद्रव्याणि ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मरूपेण शरीरपोषणार्थाशनपानादिपञ्चेन्द्रियविषयरूपेण चानन्तवारान् गृहीत्वा विमुक्तानीति द्रव्यसंसारः। स्वशुद्धात्मद्रव्यसंबन्धिसहजशुद्धलोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशेभ्यो भिन्ना ये लोकक्षेत्रप्रदेशास्तत्रैकैकं प्रदेशं व्याप्यानन्तवारान् यत्र न जातो न मृतोऽयं जीवः स कोऽपि प्रदेशो नास्तीति क्षेत्रसंसारः। शुद्धात्मानुभूतिरूपनिर्विकल्पसमाधिकालं विहाय प्रत्येकं दशकोटाकोटिसागरेण प्रमितोत्सपिण्यवसर्पिण्येकैकसमये नानापरावर्तनकालेनानन्तवारानयं जीवो यत्र न जातो न मृतः स समयो नास्तीति कालसंसारः। अभेदरत्नत्रयात्मकसमाधिबलेन सिद्धगतौ स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धपर्यायरूपेण योऽसावुत्पादो भवस्तं विहाय नारकतिर्यग्मनुष्यभवेषु तथैव देवभवेषु च निश्चयरत्नत्रयभावनारहितभोगाकाङ्क्षानिदानपूर्वकद्रव्यतपश्चरणरूपजिनदीक्षाबलेन नवगैवेयकपर्यन्तं “सक्को सक्कऔर अचेतन इन दोनोंसे मिश्र, ये सब पदार्थ मरण आदिके समयमें जैसे महावनमें व्याघ्रसे पकड़े हुए हिरणके बच्चेको अथवा महासमुद्र में जहाजसे च्युत ( रहित ) हुए पक्षीको कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार शरण नहीं होते हैं, यह जानना चाहिये । और अन्य वस्तुको अपना शरण न जानकर, भोगकी वांछारूप निदानबंध आदिकके अवलम्बन ( आधार ) से रहित तथा स्व ( आत्म ) ज्ञानसे उत्पन्न सुखरूप अमृतका धारक जो निज-शुद्ध-आत्मा है, उसीका अवलंबन करके, उसकी भावनाको करता है। और जैसे आत्माको यह शरणभूत भाता है, वैसे ही सब कालमें शरणभूत और शरणमें आये हुएके लिए वज्रके पींजरेके समान जो निजशुद्ध आत्मा है, उसको प्राप्त होता है । इस प्रकार द्वितीय अशरण अनुप्रेक्षाका व्याख्यान हुआ ।।२।। ___ अब तृतीय संसारानुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं। शुद्ध आत्मद्रव्यसे भिन्न जो सपूर्व, अपूर्व तथा मिश्र ऐसे पुद्गलद्रव्य हैं उनको ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मरूपसे तथा शरीरके पोषणके लिये भोजन पान आदि पाँचों इन्द्रियोंके विषयरूपसे इस जीवने अनन्त बार ग्रहण करके छोड़े हैं । इस प्रकार द्रव्यसंसार है। निजशुद्ध आत्मारूप द्रव्यसंबंधी जो सहज शुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश हैं, उनसे भिन्न जो लोकरूप क्षेत्रके प्रदेश हैं उनमें, एक एक प्रदेशको व्याप्त करके, जिस प्रदेश में अनंत वार यह जीव नहीं उत्पन्न हुआ हो और न मरा हो, वह कोई भी प्रदेश नहीं हैं। यह क्षेत्रसंसार है। निजशुद्ध आत्माके अनुभव रूप निर्विकल्प समाधि ( ध्यान ) के समयको त्यागकर, दशकोटाकोटीसागर प्रमाण जो उत्सर्पिणी काल और दशकोंटाकोटिसागर प्रमाण ही जो अवसर्पिणी काल है, उसके एक एक समयमें अनेक परावर्तन कालसे यह जोव यहाँपर अनन्त बार न जन्मा हो और न मरा हो वह समय नहीं है। इस प्रकार कालसंसार है । अभेद रत्नत्रय स्वरूप ध्यानके बलसे सिद्धगतिमें निज आत्माकी प्राप्ति लक्षण सिद्ध पर्यायरूप जो उत्पाद (जन्म) है उसको त्यागकर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंके भवोंमें निश्चयरत्नत्रयकी भावनासे रहित और भोग वांछादि निदान सहित जो द्रव्यतपश्चरणरूप जिनदीक्षा ( मुनिपना ) है उसके बलसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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