SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः महिस्सो दक्खिणइन्दा य लोयवाला य। लोयंतिया य देवा तच्छ चुदा णिवुदि जन्ति । १।" इति गाथाकथितपदानि तथागमनिषिद्धान्यन्यपदानि च त्यक्त्वा भवविध्वंसकनिजशुद्धात्मभावनारहितो भवोत्पादकमिथ्यात्वरागादिभावनासहितश्च सन्नयं जीवोऽनन्तवारान् जीवितो मृतश्चेति भवसंसारो ज्ञातव्यः। अथ भावसंसारः कथ्यते। तद्यथा-सर्वजघन्यप्रकृतिबन्धप्रदेशबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यमनोवचनकायपरिस्पन्दरूपाणि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि चतुःस्थानपतितानि सर्वजघन्ययोगस्थानानि भवन्ति । तथैव सर्वोत्कृष्ट प्रकृतिबन्धप्रदेशबन्धनिमित्तानि सर्वोत्कृष्टमनोवचनकायव्यापाररूपाणि तद्योग्यश्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि चतुःस्थानपतितानि सर्वोत्कृष्टयोगस्थानानि च भवन्ति । तथैव सर्वजघन्यस्थितिबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थानानि तद्योग्यासंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च भवन्ति । तथैव च सर्वोत्कृष्टकषायाध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च भवन्ति । तथैव सर्वजघन्यानुभागबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यानुभागाध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि भवन्ति । तथैव च सर्वोत्कृष्टानुभागबन्धनिमित्तानि सर्वोत्कृष्टानुभागाध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च विज्ञेयानि । तेनैव प्रकारेण स्वकीयस्वकीयजघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये तारतम्येन मध्यमानि च भवन्ति । तथैव जघन्यादुत्कृष्टपर्यन्तानि ज्ञानावरणादिमूलोत्तरप्रकृतीनां नव ग्रैवेयकपर्यन्त "प्रथम स्वर्गका इन्द्र, प्रथम स्वर्गकी महा इन्द्राणी शची, दक्षिण दिशाके इन्द्र, लोकपाल और लौकान्तिक देव ये सब स्वर्गसे च्युत होकर निर्वृति (मोक्ष ) को प्राप्त होते है ॥१।।'' ऐसे गाथामें कहे हुए पूर्वोक्त पद तथा अन्य अन्य भी जो आगममें निषिद्ध ( मना किये हुए ) उत्तम पद हैं उनको छोड़कर, भवका नाश करनेवाली जो निज आत्माकी भावना है उससे रहित तथा भवको उत्पन्न करनेवाले मिथ्यात्व, राग आदि जो भाव हैं उनसे सहित हुआ यह जीव अनन्तवार जन्मा है और मरा है । इस प्रकार यह पूर्वकथित भवसंसारका स्वरूप जानना चाहिए । __ अब भावसंसारका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-सबसे जघन्य प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंधके कारणभूत और उसके योग्य श्रेणीके असंख्येय भागप्रमाण वृद्धिहानिरूप चार स्थानोंमें पतित जो सर्व जघन्य मन, वचन तथा कायके परिस्पन्द हैं, वे सर्बजघन्य योगस्थान होते हैं । इसी प्रकार सबसे अधिक प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंधके निमित्त, उनके योग्य श्रेणीके असंख्येय भागप्रमाण चार स्थानोंमें पतित जो सर्वोत्कृष्ट मन, वचन और कायके व्यापार हैं, वे सर्वोत्कृष्ट योगस होते हैं। इसी प्रकार सर्वजघन्य स्थिति बधके कारण जो सर्वजघन्य कषायोके अध्यवसायस्थान हैं, वे भी उनके योग्य असंख्येय लोकप्रमाण तथा वृद्धिहानिरूप षट् स्थानोंमें पतित होते हैं । एवमेव जो सर्वोत्कृष्ट कषायोंके अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्येय लोक प्रमाण और षट् स्थानोंमें पतित होते हैं । और इसी प्रकार सबसे जघन्य अनुभागबंधके कारण जो सबसे जघन्य ( निकृष्ट ) अनुभागोंके अध्यवसायस्थान हैं वे भी असंख्यात लोकप्रमाण तथा षट् स्थानोंमें पतित होते हैं। तथा इसी प्रकार सबसे उत्कृष्ट अनुभाग बंधके निमित्तभूत जो सर्वोत्कृष्ट अनुभागके अध्यवसायस्थान हैं उनको भी असंख्यात लोकप्रमाण और षट् स्थानोंमें पतित जानने चाहिये । और इस पूर्वोक्त प्रकारसे ही अपने अपने जघन्य और उत्कृष्टोंके बीचमें तारतम्यसे मध्यम भेद भी होते हैं। और एवमेव जघन्यसे उत्कृष्टपर्यन्त ज्ञानावरण आदि मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिबंधके स्थान होते हैं। वे सच परमागममें कही हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy