SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७९ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः रूपं भवति तहि तेनैकदेशेनापि लोकालोकप्रत्यक्षतां प्राप्नोति न च तथा दृश्यते। किन्तु प्रचुरमेघप्रच्छादितादित्यबिम्बवनिबिडलोचनपटलवद्वा स्तोकं प्रकाशयतीत्यर्थः॥ अथ क्षयोपशमलक्षणं कथ्यते---सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिकाः कर्मशक्तयः सर्वघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते, विवक्षितैकदेशेनात्मगुणप्रच्छादिकाः शक्तयो देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते, सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयाभाव एव क्षयस्तेषामेवास्तित्वमुपशम उच्यते सर्वघात्युदयाभावलक्षणक्षयेण सहित उपशमः तेषामेकदेशघातिस्पर्द्धकानामुदयश्चेति समुदायेन क्षयोपशमो भण्यते। क्षयोपशमे भवः क्षायोपशमिको भावः। अथवा देशघातिस्पद्धकोदये सति जोव एकदेशेन ज्ञानादिगुणं लभते यत्र स क्षायोपशमिको भावः। तेन कि सिद्ध-पूर्वोक्तसूक्ष्मनिगोदजीवे ज्ञानावरणीयदेशघातिस्पर्द्धकोदये सत्येकदेशेन ज्ञानगुणं लभ्यते तेन कारणेन तत् क्षायोपशमिकं ज्ञानं न च क्षायिकं कस्मादेकदेशोदयसद्भावादिति । अयमत्रार्थः यद्यपि पूर्वोक्तं शुद्धोपयोगलक्षणं क्षायोपशमिकं ज्ञानं मुक्तिकारणं भवति तथापि ध्यातृपुरुषेण यदेव सकलनिरावरणमखण्डकसकलविमलकेवलज्ञानलक्षणं परमात्मस्वरूपं तदेवाहं न च खण्डज्ञानरूय इति भावनीयम् । इति संवरतत्त्वव्याख्यानविषये नयविभागो ज्ञातव्य इति ॥ ३४॥ अथ संवरकारणभेदान् कथयतीत्येका पातनिका, द्वितीया तु कैः कृत्वा संवरो भवतीति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददातोति पातनिकाद्वयं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति भगवान् किन्तु अधिक मेघों (बादलों) से आच्छादित सूर्यके बिम्बके समान अथवा निबिड नेत्रपटलके समान वह किचित् किंचित् प्रकाश करता है, यह तात्पर्य है ॥ अब क्षयोपशमका लक्षण कहते हैं-सब प्रकारसे आत्माके गणोंको प्रच्छादन करनेवाली जो कर्मोकी शक्तियाँ हैं उनको सर्वघातिस्पर्द्धक कहते हैं। और विवक्षित एकदेशसे जो आत्माके गुणोंको प्रच्छादन करनेवाली कर्मशक्तियाँ हैं वे देशघातिस्पर्द्धक कहलाती हैं। सर्वघातिस्पर्द्धकोंके उदयका जो अभाव है सो हो क्षय है और उन्हीं सर्वघातिस्पर्द्धकोंका जो अस्तित्व (विद्यमानता) है वह उपशम कहलाता है। सर्वघातिस्पर्द्धकोंके उदयका अभावरूप जो क्षय है उस सहित जो उन एकदेश धातिस्पर्द्ध कोंका उदयरूप उपशम सो क्षयोपशम, ऐसे समुदायसे क्षयोपशम कहा जाता है । क्षयोपशममें जो हो वह क्षायोपशमिक भाव है । अथवा देशघातिस्पद्धकोंके उदयके भी होते हुए जीव जहाँपर एकदेशसे ज्ञानादि गुण प्राप्त करता है वह क्षायोपशमिक भाव है। इससे क्या सिद्ध हुआ कि पूर्वोक्त सूक्ष्म निगोद जीवमें ज्ञानावरणीयकर्मके देशघातिस्पद्धकोंका उदय होनेपर एकदेशसे ज्ञान आदि गुण प्राप्त होते हैं इस कारण वह ज्ञान क्षायोपशमिक है और क्षायिक नहीं; क्योंकि एकदेशमें उदयका सद्भाव है। यहाँपर तात्पर्य यह है कि यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणका धारक क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्तिका कारण है तथापि ध्यान करनेवाले पुरुष को 'जोही सकल आवरणोंसे रहित, अखण्ड-एक-सकल-विमल-केवलज्ञानरूप परमात्माका स्वरूप है । सो हो मैं हूँ और खण्ड ज्ञानरूप नहीं" ऐसा ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार संवरतत्त्वके व्याख्यानमें नयका विभाग जानना चाहिये ॥ ३४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy