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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार कश्चिदाह - केवलज्ञानं सकलनिरावरणं शुद्धं तस्य कारणेनापि सकलनिरावरणेन शुद्धेन भाव्यम् उपादानकारणसदृशं कार्यं भवतीति वचनात् । तत्रोत्तरं दीयते युक्तमुक्तं भवता परं किन्तूपादानकारणमपि षोडशर्वाणकासुवर्णकार्यस्याधस्तनर्वाण कोपादानकारणवत् मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पिण्डस्थासकोश कुशूलोपादानकारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्नं भवति । यदि पुनरेकान्तेनोपादानकारणस्य कार्येण सहाभेदो भेदो वा भवति तहि पूर्वोक्तसुवर्णमृत्तिकादृष्टान्तsuarकार्यकारणभावो न घटते । ततः किं सिद्धं - एकदेशेन निरावरणत्वेन क्षायोपशमिकज्ञानलक्षणमेक देशव्यक्तिरूपं विवक्षितैकदेशे शुद्धनयेन संवरशब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं मुक्तिकारणं भवति । यच्च लब्ध्यपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदजीवे नित्योद्घाटं निरावरणं ज्ञानं श्रूयते तदपि सूक्ष्मनिगोदसर्व जघन्यक्षयोपशमापेक्षया निरावरणं न च सर्वथा । कस्मादिति चेत् — तदावरणे जीवाभावः प्राप्नोति । वस्तुत उपरितनक्षायोपशमिकज्ञानापेक्षया केवलज्ञानापेक्षया च तदपि सावरणं संसारिणां क्षायिकज्ञानाभावाच्च क्षायोपशमिकमेव । यदि पुनर्लोचनपटलस्यैकदेश निरावरणवत्केवलज्ञानांश ७८ यहाँ कोई शंका करता है कि केवलज्ञान समस्त आवरणोंसे रहित और शुद्ध है इसलिये केवलज्ञानका कारण भी समस्त आवरणों रहित तथा शुद्ध होना चाहिये। क्योंकि, उपादानकारणके समान कार्य होता है ऐसा वचन है। अब इस शंकाका उत्तर दिया जाता है कि आपने ठीक कहा परन्तु उपादानकारण भी सोलह वानीके सुवर्णरूप कार्यके अधोभागवर्त्तिनी ( पूर्ववत्तिनी) वर्णिकारूप उपादानकारणके समान और मृत्तिकारूप कलशकार्यके प्रति मृत्तिकाका पिण्ड, स्थास, कोश, एवं कुशूलरूप उपादान कारणके सद्दश कार्यसे एक देशसे भिन्न होता है अर्थात् सोलह बानीके सोनेके प्रति जैसे पहले की सब पन्द्रह वर्णिकायें उपादान कारण हैं और घटके प्रति जैसे मृत्तिकापिंड, स्थास, कोश, कुशूल आदि उपादान कारण हैं सो सोलह बानीके सुवर्णं और घटरूप कार्य से एकदेशभिन्न हैं ( सर्वथा सोलह बानीके सुवर्णस्वरूप तथा घटरूप नहीं है ) इसी प्रकार समस्त उपादानकारण कार्यसे एकदेश भिन्न होते हैं । और यदि सर्वथा उपादानकारणका कार्य के साथ अभेद हो तो पूर्वोक्त जो सुवर्ण और मृत्तिकाके दो दृष्टान्त हैं उनके समान कार्य और कारणभाव ही नहीं सिद्ध हो अर्थात् सोलह बानीके सुवर्णको ही सोलह बानीके सुवर्णरूप कार्यके प्रति उपादानकारण माना जावे अथवा घटको ही घटके प्रति उपादानकारण माने तो यह इसका कारण है यह इसका कार्य है इस प्रकारका कार्यकारणभाव नहीं हो सकता । इस कारण क्या सिद्ध हुआ कि एकदेश निरावरणतासे क्षायोपशमिक ज्ञानरूप लक्षणका धारक एकदेश व्यक्तिरूप और विवक्षित एक देश में शुद्धनयसे "संवर" इस शब्दसे वाच्य जो शुद्ध उपयोगका स्वरूप है सो मुक्तिका कारण होता है । और जो लब्धिअपर्याप्त सूक्ष्म निगोद जीवमें नित्य उद्घाट ( खुला हुआ ) तथा आवरण-रहित ज्ञान सुना जाता है वह भी सूक्ष्म निगोदमें सर्व जघन्य जो क्षयोपशम है उसकी अपेक्षासे आवरणरहित है; सर्वथा नहीं । ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि यदि ज्ञानका आवरण ही हो तो जोवका अभाव प्राप्त होता है । यथार्थ में तो उपरिवर्त्ती क्षायोपशमिक ज्ञानकी अपेक्षासे और केवलज्ञानकी अपेक्षासे वह ज्ञान भी आवरणसहित है और संसारी जीवोंके क्षायिकज्ञानका अभाव है इसलिये क्षायोपशमिक ही है । और यदि नेत्रपटलके एकदेशमें निरावरणके तुल्य वह ज्ञान केवलज्ञानांशरूप हो तो उस एकदेशसे भी लोक तथा अलोकका प्रत्यक्ष प्राप्त हो जाय अर्थात् लोक अलोक प्रत्यक्षमें जान पड़ें, परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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