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________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] वृहद्रव्य संग्रहः रूपयोगत्रयव्यापारस्तिष्ठति । तदुच्यते - मिथ्यादृष्टि सासादन मिश्र गुणस्थानेषूपर्युपरिमन्दत्वेनाशुभोपयोगो वर्त्तते, ततोऽप्यसंयत सम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्त्तते, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशशुद्धनयरूप शुद्धोपयोगो वर्तते, तत्रैव मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने संवरो नास्ति, सासादनादिगुणस्थानेषु "सोलसपणवीसणभं दसचउछक्के क्क बंधवोछिण्णा । दुगतीसचदुरपुच्वे पणसोलस जोगिणो एक्को । १।" इति बन्धविच्छेदत्रिभङ्गीकथितक्रमेणोपर्युपरि प्रकर्षेण संवरो ज्ञातव्य इति । अशुद्धनिश्चयमध्ये मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानेषूपयोगत्रयं व्याख्यातं, तत्राशुद्धनिश्चये शुद्धोपयोगः कथं घटत इति चेत्तत्रोत्तरं - शुद्धोपयोगे शुद्धबुद्धेकस्वभावो निजात्मा ध्येयस्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलम्बनत्वाच्छुद्ध । त्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । स च संवरशब्दवाच्यः शुद्धोपयोगः संसारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यायवदशुद्धो न भवति तथैव फलभूत केवलज्ञानलक्षणशुद्धपर्यायवत् शुद्धोऽपि न भवति किन्तु ताभ्यामशुद्धशुद्ध पर्यायाभ्यां विलक्षणं शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चय रत्नत्रयात्मकं मोक्षकारणमेकदेशव्यक्तिरूपमेकदेशनिरावरणं च तृतीयमवस्थान्तरं भण्यते । निश्चय वर्त्तता है । और उसके मध्य में गुणस्थानोंके भेदसे शुभ अशुभ और शुद्ध अनुष्ठानरूप तीन योगोंका व्यापार रहता है । सो कहते हैं - मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानोंमें ऊपर-ऊपर मन्दतासे अशुभ उपयोग रहता है; अर्थात् जो अशुभोपयोग प्रथम गुणस्थान में है, उससे कम दूसरे में और दूसरेसे अल्प तीसरे में है । उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्त नामक जो तीन गुणस्थान हैं इनमें परंपरासे शुद्ध उपयोगका साधक ऊपर ऊपर तारतम्यसे शुभ उपयोग प्रवर्त्तता है । इनके पश्चात् अप्रमत्त आदि क्षीणकषायपर्यन्त ६ गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदविवक्षित एकदेश शुद्धनयरूप शुद्ध उपयोग वर्त्तता है । इनमें व्यवस्था इस प्रकार हैं किमिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानमें तो संवर है ही नहीं और सासादन आदि गुणस्थानों में "सोलसपणवीसणभं दस चउछक्केक्क बंधवोछिण्णा । दुगतीस चतुरपुव्वे पणसोलस जोगिणो एक्को । १ ।' इस प्रकार बंधविच्छेद त्रिभंगीमें कहे हुए क्रमके अनुसार ऊपर-ऊपर अधिकता से सवर जानना चाहिये । ऐसे अंशुद्ध निश्चयनय के मध्य में मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अशुभ, शुभ और शुद्धरूप तीनों उपयोगों का व्याख्यान किया । इस अशुद्ध निश्चय में शुद्ध उपयोग किस प्रकार सिद्ध हो सकता हैं ऐसा प्रश्न करो तो उसमें उत्तर यह है कि शुद्ध उपयोगमें शुद्ध बुद्ध एक स्वभावका धारक जो निज आत्मा है सो ध्येय होता है, इस कारण शुद्ध ध्येय ( ध्यान करनेयोग्य पदार्थ ) होनेसे शुद्ध अवलम्बन ( आधार ) पनेसे तथा शुद्ध आत्मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग सिद्ध होता है । और वह 'संवर' इस शब्दसे कहे जाने योग्य जो शुद्धोपयोग है सो संसारके कारणभूत जो मिथ्यात्व, राग आदि अशुद्ध पर्याय है उनकी तरह अशुद्ध नहीं होता है और इसी प्रकार फलभूत जो केवलज्ञान स्वरूप श ुद्ध पर्याय है उसकी भांति शुद्ध भी नहीं होता है; किन्तु उन अशुद्ध तथा शुद्ध दोनों पर्यायोंसे विलक्षण, शुद्ध आत्मा के अनुभवस्वरूप निश्चयरत्नत्रयरूप, मोक्षका कारण, एक देश में व्यक्तिरूप (प्रकटरूप) और एक देशमें आवरणरहित ऐसा तृतीय अवस्थान्तररूप कहा जाता है । Jain Education International ७७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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