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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः अथोक्तमनुपलब्धेरिति हेतुवचनं तदप्ययुक्तम् । कस्मादिति चेत् — किं भवतामनुपलब्धिः, किं जगत्त्रयकालत्रयवत्तपुरुषाणां वा ? यदि भवतामनुपलब्धिस्तावता सर्वज्ञाभावो न सिध्यति, भवद्भिर रनुपलभ्यमानानां परकीयचित्तवृत्तिपरमाण्वादिसूक्ष्मपदार्थानामिव । अथवा जगत्त्रयकालत्रयवत्त पुरुषाणामनुपलब्धिस्तत्कथं ज्ञातं भवद्भिः । ज्ञातं चेर्त्ताहि भवन्त एव सर्वज्ञा इति पूर्वमेव भणितं तिष्ठति । इत्यादिहेतुदूषणं ज्ञातव्यम् । यथोक्तं खरविषाणवदिति दृष्टान्तवचनं तदप्यनुचितम् । खरे विषाणं नास्ति गवादौ तिष्ठतीत्यत्यन्ताभावो नास्ति यथा तथा सर्वज्ञस्यापि नियतदेशकालादिष्वभावेऽपि सर्वथा नास्तित्वं न भवति इति दृष्टान्तदूषणं गतम् । अथ मत्तम् - सर्वज्ञविषये बाधकप्रमाणं निराकृतं भवद्भिस्तहि सर्वज्ञसद्भावसाधकं प्रमाणं किम् ? इति पृष्ट प्रत्युत्तरमाह-- कश्चित् पुरुषो धर्मी, सर्वज्ञो भवतीति साध्यते धर्मः, एवं धर्मिधर्मसमुदायेन पक्षवचनम् । कस्मादिति चेत् पूर्वोक्तप्रकारेण बाधकप्रमाणाभावादिति हेतुवचनम् । १६७ यह पूछो तो उत्तर यह है कि, तोन जगत् और तीन कालको जाननेसे वह आप हो सर्वज्ञ है अर्थात् जब वह आप ही सर्वज्ञ है तब सर्वज्ञ नहीं है ऐसा कैसे कह सकता है | अब जो 'सर्वज्ञ नहीं है' इस वार्त्ताको सिद्ध करनेके लिये 'सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है' यह हेतु वचन कहा है वह भी अयुक्त ( ठीक नहीं ) है । क्यों अयुक्त है ? ऐसा प्रश्न करो तो हम पूछते हैं कि, क्या सर्वज्ञकी प्राप्ति तुम्हारे नहीं है वा क्या तीन लोक व तीन कालमें रहनेवाले जीवों के सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है ? यदि तुम लोगोंको सर्वज्ञ प्राप्त नहीं होता है तो इससे सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं होता । क्योंकि, जैसे अन्य पुरुषोंके मनके विचार और परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ तुम्हारे जानने में नहीं आते हैं, तो भी वे हैं अर्थात् उनका अभाव नहीं है । इसी प्रकार तुम्हारे जानने में नहीं आया हुआ सर्वज्ञ भी है उसका सर्वथा अभाव नहीं । अब कदाचित् यह कहो कि, तीन जगत् और तीन कालके पुरुषोंके ही सर्वज्ञकी अप्राप्ति है; तो हम पूछते हैं कि, क्या तुमने यह जान लिया ? जो जान लिया है तव तो 'तुम ही सर्वज्ञ हो' यह जो हमने पहले कहा है वही यहाँ ठहरा । इत्यादि अनेक दूषण इस 'अप्राप्ति' रूप हेतुमें जानने चाहिये । और जो तुमने 'सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि उसकी प्राप्ति नहीं होती' इसको सिद्ध करनेके लिये गर्दभके सींगके समान यह दृष्टान्तवचन कहा वह भी उचित नहीं है । क्योंकि, जैसे गर्दभ ( गधे ) के सींग नहीं हैं परन्तु बैल आदि के सींग हैं इसलिये सींगका अत्यन्त ( सर्वथा ) अभाव नहीं है । इसी प्रकार यद्यपि सर्वज्ञका नियत किसी ( कायम किये हुए ) देश तथा काल आदिमें अभाव है तो भी उस सर्वज्ञका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता है, इस प्रकार दृष्टान्त में दूषण दिखाया गया || अब कदाचित् वादी यह पूछे कि आपने सर्वज्ञके विषय में जो बाधकप्रमाण था उसका तो खंडन कर दिया परन्तु सर्वज्ञके सद्भावको अर्थात् सर्वज्ञ है इस कथनको सिद्ध करनेवाला प्रमाण क्या है सो कहो । इस पर उत्तर देते हैं कि, कोई पुरुषविशेष धर्मी सर्वज्ञ है, इस रीति से किसी पुरुषविशेषको पक्ष करके उसमें सर्वज्ञत्व धर्म सिद्ध करते हैं । 'कश्चित् पुरुषो धर्मी सर्वज्ञो भवति' इस प्रकारके हमारे वाक्यमें धर्मी और धर्मके समुदायरूपसे जो पक्षवचन अर्थात् पक्षमें साध्यका निर्देश है, वह प्रतिज्ञा है । क्योंकि - सर्वज्ञके होने में पूर्वकथित रीति से कोई बाधक प्रमाण नहीं है । 'तदस्तित्वे बाधकप्रमाणाभावात्' यह हमारा हेतुका कथन है । किसके समान ? अपने अनुभव में आते हुए सुख दुःख आदिके समान ( स्वयमनुभूयमानसुखदुःखादिवत् ), यह दृष्टान्तका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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