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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
[ तृतीय अधिकार नाशात्सकाशात् इन्द्रादिविनिर्मितां गर्भावतरणजन्माभिषेकनिः क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्तिनिर्वाणाभिधानपञ्चमहाकल्याणरूपां पूजामर्हति योग्यो भवति तेन कारणेन अर्हन् भण्यते । “विचिन्तिज्जो " इत्युक्तविशेषणविशिष्टमाप्तागमप्रभृतिग्रन्थकथितवीत राग सर्वज्ञाद्यष्टोत्तरसहस्रनामानमर्हतं जिनभट्टारकं पदस्थपिंडस्थरूपस्थध्याने स्थित्वा विशेषेण चिन्तयत ध्यायत हे भव्या यूयमिति ।
अत्रावसरे भट्टचार्वाकमतं गृहीत्वा शिष्यः पूर्वपक्षं करोति । नास्ति सर्वज्ञोऽनुपलब्धेः । खरविषाणवत् । तत्र प्रत्युत्तरं - किमत्र देशेऽत्र काले अनुपलब्धिः सर्वदेशे काले वा । यद्यत्र देशेऽत्र काले नास्ति तदा सम्मत एव । अथ सर्वदेशकाले नास्तीति भण्यते तज्जगत्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं कथं ज्ञातं भवता ? ज्ञातं चेतहि भवानेव सर्वज्ञः । अथ न ज्ञातं तर्हि निषेधः कथं क्रियते । तत्र दृष्टान्तः - यथा कोऽपि निषेधको घटस्याधारभूतं घटरहितं भूतलं चक्षुषा दृष्ट्वा पश्चाद्वदत्यत्र भूतले घटो नास्तीति युक्तम् । यस्तु चक्षूरहितस्तस्य पुनरिदं वचनमयुक्तम् । तथैव यस्तु जगत्त्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं जानाति तस्य जगत्त्रये कालत्रयेऽपि सर्वज्ञो नास्तीति वक्तुं युक्तं भवति, यस्तु जगत्त्रयं कालत्रयं न जानाति स सर्वज्ञनिषेधं कथमपि न करोति । कस्मादिति चेत् - त्त्रयकालत्रयपरिज्ञानेन स्वयमेव सर्वज्ञत्वादिति ।
-- जग
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निर्वाणसमय में होनेवाली जो पाँच महाकल्याणरूप पूजा है, उसके योग्य होता है इस कारण अर्हन् कहलाता है "विचितिज्जो” इन उक्त विशेषणोंके धारक और आप्तागम में कहे हुए वीतराग सर्वज्ञ आदि एक हजार आठ नामोंको धारण करनेवाले श्री अहंत जिनभट्टारकको पदस्थ - पिंडस्थ-और रूपस्थ ध्यानमें स्थित होकर हे भव्यजनो ! तुम अधिकतासे चितवन करो ॥
अब इस अवसर में भट्ट और चार्वाक ( नास्तिक ) का मत ग्रहण करके शिष्य पूर्व पक्षकों करता है कि, सर्वज्ञ नहीं है; क्योंकि, उसका प्रत्यक्ष अथवा प्राप्ति नहीं होती, गधेके सींग के समान | इस शंकाका उत्तर यह है - तुम जो सर्वज्ञकी अप्राप्ति मानते हो इसमें हम पूछते हैं कि, सर्वज्ञकी प्राप्ति इस देश और इस कालमें नहीं है वा सब देशों और सब कालों में सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है ? यदि कहो कि, इस देश और इस कालमें सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है तब तो तुम्हारा कहना ठीक है, क्योंकि, हम भी ऐसा मानते हैं । यदि तुम कहो कि, सब देशों और सब कालोंमें सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है । तो हम पूछते हैं कि, तुमने यह कैसे जाना कि, अधो, ऊर्ध्व और मध्य भेदसे तीनों लोक तथा भूत भविष्यत् और वर्तमान ये तीनों काल सर्वज्ञ करके रहित हैं ? यदि तुम यह कहो कि, हमनें जान लिया कि, तीनों लोक और तीनों काल सर्वज्ञ रहित हैं तब तो तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हो चुके ॥ भावार्थ -- जो तीन लोक तथा तीन कालके पदार्थोंको जानता है वही सर्वज्ञ है, सो तुमने यह जान ही लिया कि, तीनों लोक और तीनों कालोंमें सर्वज्ञ नहीं है । इस लिये तुम ही सर्वज्ञ ठहरे । और जो तुमने तीन लोक व तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं' इसको नहीं जाना है; तो फिर 'सर्वज्ञ नहीं है' ऐसा निषेध कैसे करते हो ? यहांपर दृष्टान्त यह है कि, जैसे कोई निषेध करनेवाला पुरुष घटका आधारभूत जो भूतल ( जमीन ) है उसको नेत्रोंसे घटरहित जान लेता है तब कहता है कि, इस 'भूतल में घट नहीं है' सो यह कहना तो उसका ठीक है । परंतु जो नेत्रोंसे रहित है, वह जो इस भूतलमें घट नहीं है' ऐसा वचन कहे तो ठीक नहीं । इसी प्रकार जो तीन जगत् और तीन कालको सर्वज्ञरहित जानता है वह जो "तोन जगत् तथा तीन काल में सर्वज्ञ नहीं है" यह कहे तो उसका कहना ठीक है । परंतु जो तीन लोक व तीन कालको सर्वज्ञरहित नहीं जानता है; वह सर्वज्ञका निषेध किसी प्रकारसे भी नहीं कर सकता है । क्यों नहीं कर सकता ?
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