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________________ [१५] लोगोंकी क्रियाएँ मेरे देखनेमें आई थीं, जिससे वे क्रियाएँ मलिन लगनेसे मैं उनसे डरता था अर्थात् वे मुझे प्रिय न थीं। ___लोग मुझे पहलेसेही समर्थ शक्तिशाली और गाँवका नामांकित विद्यार्थी मानते थे, इसलिए मैं अपनी प्रशंसाके कारण जानबूझकर वैसे मंडलमें बैठकर अपनी चपल शक्ति दर्शानेका प्रयत्न करता । कंठीके लिए बार-बार वे मेरी हास्यपूर्वक टीका करते; फिर भी मैं उनसे वाद करता और उन्हें समझानेका प्रयत्न करता । परन्तु धीरे-धीरे मुझे उनके (जैनके) प्रतिक्रमणसूत्र इत्यादि पुस्तकें पढनेके लिए मिलीं; उनमें बहुत विनयपूर्वक जगतके सब जीवोंसे मित्रता चाही है । अतः मेरी प्रीति इसमें भी हुई और उसमें भी रही । धीरे-धीरे यह प्रसंग बढा । फिर भी स्वच्छ रहनेके तथा दूसरे आचार-विचार मुझे वैष्णवोंके प्रिय थे और जगतकर्ताकी श्रद्धा थी । उस अरसेमें कंठी टूट गई; इसलिए उसे फिरसे मैंने नहीं बाँधा । उस समय बाँधने न बाँधनेका कोई कारण मैंने ढूँढा न था । यह मेरी तेरह वर्षकी वयचर्या है । फिर मैं अपने पिताकी दूकान पर बैठता और अपने अक्षरोंकी छटाके कारण कच्छ दरबारके उतारे पर मुझे लिखनेके लिये बुलाते तब मैं वहाँ जाता । दूकान पर मैंने नाना प्रकारकी लीला-लहर की है, अनेक पुस्तकें पढी हैं, राम इत्यादिके चरित्रों पर कविताएँ रची है; सांसारिक तृष्णाएँ की हैं, फिर भी मैंने किसीको न्यून-अधिक दाम नहीं कहा या किसीको न्यून-अधिक तौल कर नहीं दिया, यह मुझे निश्चित याद है ।" (पत्रांक ८९) जातिस्मरणज्ञान और तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति श्रीमद्जी जिस समय सात वर्षके थे उस समय एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग उनके जीवनमें बना । उन दिनों ववाणियामें अमीचन्द नामके एक गृहस्थ रहते थे जिनका श्रीमद्जीके प्रति बहुत प्रेम था । एक दिन साँपके काट खानेसे उनकी तत्काल मृत्यु हो गई । यह बात सुनकर श्रीमद्जी पितामहके पास आये और पूछा'अमीचन्द गुजर गये क्या ?" पितामहने सोचा कि मरणकी बात सुननेसे बालक डर जायेगा, अतः उन्होंने, ब्यालू कर ले, ऐसा कहकर वह बात टालनेका प्रयत्न किया । मगर श्रीमद्जी बार-बार वही सवाल करते रहे । आखिर पितामहने कहा-'हाँ, यह बात सच्ची है ।' श्रीमद्जीने पूछा-'गुजर जानेका अर्थ क्या ?' पितामहने कहा-'उसमेंसे जीव निकल गया, और अब वह चल फिर या बोल नहीं सकेगा; इसलिए उसे तालाबके पासके स्मशानमें जला देंगे ।' श्रीमद्जी थोडी देर घरमें इधर-उधर घूमकर छिपे-छिपे तालाब पर गये और तटवर्ती दो शाखावाले बबल पर चढ कर देखा तो सचमुच चिता जल रही थी। कितने ही मनुष्य आसपास बैठे हुए थे । यह देखकर उन्हें विचार आया कि ऐसे मनुष्यको जला देना यह कितनी क्रूरता ! ऐसा क्यों हुआ? इत्यादि विचार करते हुए परदा हट गया; और उन्हें पूर्वभवोंकी स्मृति हो आई । फिर जब उन्होंने जूनागढका गढ देखा तब उस (जातिस्मरणज्ञान) में वृद्धि हुई। इस पूर्वस्मृतिरूप ज्ञानने उनके जीवनमें प्रेरणाका अपूर्व नवीन अध्याय जोडा । इसीके प्रतापसे उन्हें छोटी उम्रसे वैराग्य और विवेककी प्राप्ति द्वारा तत्त्वबोध हुआ । पूर्वभवके ज्ञानसे आत्माकी श्रद्धा निश्चल हो गई । संवत् १९४९, कार्तिक वद १२ के एक पत्रमें लिखते है-"पुनर्जन्म है- जरूर है । इसके लिए 'मैं' अनुभवसे हाँ कहनेमें अचल हूँ। यह वाक्य पूर्वभवके किसी योगका स्मरण होते समय सिद्ध हुआ लिखा है । जिसने पुनर्जन्मादि भाव किये हैं, उस पदार्थको किसी प्रकारसे जानकर यह वाक्य लिखा गया है ।" (पत्रांक ४२४) एक अन्य पत्रमें लिखते हैं-“कितने ही निर्णयोंसे मैं यह मानता हूँ कि इस कालमें भी कोई-कोई महात्मा गतभवको जातिस्मरणज्ञानसे जान सकते हैं; यह जानना कल्पित नहीं किन्तु सम्यक् (यथार्थ) होता है ! उत्कृष्ट संवेग, ज्ञानयोग और सत्संगसे भी यह ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभवमें आ जाता है । जब तक पूर्वभव अनुभवगम्य न हो तब तक आत्मा भविष्यकालके लिए सशंकित धर्मप्रयत्न किया करता है; और ऐसा सशंकित प्रयत्न योग्य सिद्धि नहीं देता ।" (पत्रांक ६४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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